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द्वितीयोन्मेषः संपदपेतोऽपि भवन इह नाहि प्रतन्यते ग्रन्थेऽस्मिन्नाति विस्तार्यते। कृतः-शोभान्तराभावात् । स्थाननियमव्यतिरिक्तस्यान्यस्य शोभान्तरस्य छाया तरस्यासंभवादित्यर्थः । अस्य च वर्णविन्यासवैचित्र्यध्यतिरेकेणान्यत्किचिदपि जीवितान्तरं न परिदृश्यते। तेनानन्तरोक्तालंकृतिप्रकारतव युक्ता। उदाहरणान्यत्र शिशुपालवधे चतुर्ये सर्गे समर्पकाणि कानिचिदेव यमकानि, रघुवंशे वा वसन्तवर्णने । ___ कोई इसका भेद दिखाई पड़ता है, इस पूर्वोक्त (वर्णविन्यासवक्रता) का कोई अपूर्व भेद दृष्टिगोचर होता है। कौन है यह ( भेद ) इसे बताते हैं-यमक नाम का । जिसकी ( साहित्य में ) यमक नाम से ख्याति है। और वह है कैसा-समान वर्णों से युक्त । समान स्वरूप वाले अर्थात् एक ही तरह सूने जाने वाले वर्ण ( अक्षर ) हैं जिसमें वह हुआ तथोक्त (समान वर्गोंवाला )। इस प्रकार समान रूप से सुनाई पड़ने वाले एक, दो अथवा बहत से ( वर्णों ) का जो ब्यवधानयुक्त अथवा व्यवधानरहित विन्यास है वही यमक कहा जाता है। इस प्रकार समान रूप बाली ( वर्गों की ) दो राशियों (अथवा रचनामों) के होने पर भी अन्य अर्थों से युक्त अर्थात् भिन्न-भिन्न अर्थों वाली ( समान रूप वर्णों की राशियाँ जहाँ होती हैं ) और किस प्रकार का (वर्ण समुदाय-स्तादि अर्थात् शीघ्र ही वाकमार्थ का समर्पक, प्रसाद गुण से युक्त, बिना किसी क्लेश के समझ में आ जाने वाला। और इसी को विशिष्ट करते हैं कि श्रुतिपेशल हो अर्थात् श्रवणेन्द्रिय ( कानों ) के लिये रमणीय हो, सुकुमार पदों से विरचित हो ( और ) किस प्रकार काऔचित्यपूर्ण। औचित्य अर्थात् पदार्थ के स्वरूप की जो महिमा उससे युक्त अर्थ भलीभांति सङ्गत हो । तात्पर्य यह कि जहाँ यमक के प्रयोग की व्यसनिता से भी औचित्य की क्षति न होती हो । उसी को दूसरे विशेषण के द्वारा विशिष्ट करते हैं-आदि इत्यादि नियत स्थानों से सुशोभित होने वाला। आदि है आदि में जिनके वे हुए तथोक्त (आद्यादि ) अर्थात् प्रथम, मध्यम और अन्त, वे ही निर्धारित स्थान अर्थात् विशिष्ट विन्यास उनके द्वारा सुशोभित होता है जो ऐसा तथोक्त ( आदि, मध्य एवं अन्त इत्यादि निश्चित स्थानों से शोभित होने वाला)। यहाँ आदि इत्यादि शब्द सम्बन्ध वाचक शब्द हैं। उनको पद आदि से विशिष्ट कर लेना चाहिए ( अर्थात् पदादि के आदि, मध्य अथवा अन्त में निश्चित स्थानों पर सुशोभित होने वाला) लेकिन वह ( यमक रूप ) ( वर्णविन्यासवृक्रता का ) भेद उक्त प्रकार की सम्पति से युक्त होने पर भी ( अर्थात् सुनने में मनोहर प्रसाद गुणयुक्त, औचित्यपूर्ण इत्यादि लक्षणों वाला होते हुए भी ) यहाँ इस