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द्वितीयोन्मेषः नातिनिर्बन्धविहिता नाप्यपेशलभूषिता। पूर्वावृत्तपरित्यागनूतनावर्तनोज्ज्वला ॥४॥ न तो अत्यन्त हठपूर्वक निरचित और न ही कठोर ( वर्णों ) से अलंकृत ( वर्णविन्यास का वैचित्र्य होना चाहिए अपितु ) पहले ( बार-बार ) आवृत्त किए गये ( वर्णों ) के परित्याग एवं नवीन वर्णों की आवृति से सुशोभित होने वाली ( वर्णविन्यास की वक्रता प्रतिपादित करनी चाहिए)॥४॥
नातिनिर्बन्धविहिता-'निर्बन्ध' शब्दोऽत्र व्यसनितायां वर्तते । तेनातिनिर्बन्धेन पुनः पुनरावर्तनव्यसनितया न विहिता, अप्रयत्नविरचितेत्यर्थः । व्यसनितया प्रयत्नविरचने हि प्रस्तुतौचित्यपरिहाणे
च्यवाचकयोः परस्परस्पधित्वलक्षणसाहित्यविरहः पर्यवस्यति । यथा--
'अत्यधिक निर्बन्ध के साथ विहित नहीं'-यहाँ निर्बन्ध शब्द 'व्यसनिता' ( अर्थ ) में प्रयुक्त हुआ है। इसलिये अत्याधिक निर्बन्ध अर्थात् बार बार ( वर्णों ) की ओवृति कराने की व्यसनिता से न रची गई अर्थात् बिना ( किसी) प्रयास के ( स्वभावतः ) विरचित होनी चाहिए। क्योंकि व्यसन हो जाने के कारण प्रयत्नपूर्वक रचना करने पर प्रकरण के औचित्य की क्षति होने से वाच्य तथा वाचक ( शब्द और अर्थ ) में परस्पर स्पर्धा से युक्त रूप साहित्य ( सहभाव ) का विच्छेद हो जाता है। जैसे
भण तरुणि इति ॥२०॥ नाप्यपेशलभूषिता न चाप्यपेशलरसुकुमारैरक्षरैरलङ्कृता। यथा
शीर्णघ्राणाध्रि इति ॥ २१॥ ( उदाहरण संख्या ११९ पर पूर्वोदाहृत ) भण तरुणि ॥ १०॥ यह [ श्लोक ] । [ यहाँ पर कवि केवल अनुप्रास अथवा वर्गों की पुनः पुनः आवृति कराने के व्यसन के कारण केवल वर्गों के सवर्ण होने के ही सौन्दर्य को प्रस्तुत कर सका है। लेकिन अर्थ का वैचित्र्य तनिक भी नहीं। इसका अर्थ एवं व्याख्या वहीं देखें ] ।
तथा ( वर्णविन्यासवक्रता ) अपेशल अर्थात् कठोर वर्णों ( की पुनः पुनः आवृत्ति ) से अलंकृत भी न होनी चाहिए । जैसे
शीर्णघ्राणाध्रि ।। २१ ।। इत्यादि श्लोक । टिप्पणी-यह श्लोक मयूरशतक का ६ वा श्लोक है । पूरा इस प्रकार है