________________
प्रथमोन्मेषः
१६१
तथा वह सौभाग्य गुण केवल शक्ति के व्यापार से सिद्ध होने वाला नहीं होता है, अपितु उसके लिये बताई गई ( व्युत्पत्ति एवं अभ्यास आदि ) समस्त सामग्रियों द्वारा सम्पादिन किये जाने योग्य होता है इसे बताते हैंसर्वसम्पत्परिस्पन्दसम्पाद्यं सरसात्मनाम् ।
अलौकिक चमत्कारकारि काव्यैकजीवितम् ॥ ५६ ॥
( काव्य निर्माण के लिये अभीष्ट व्यक्ति, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास आदि ) समस्त सम्पत्ति के परिस्फुरण से सम्पन्न किये जाने योग्य तथा सरस हृदय वा (लोगों ) के लिये लोकोत्तर आनन्द प्रदान करने वाला ( सौभाग्य गुण) कारण का अद्वितीय प्राण है ।। ५६ ॥
सर्वसम्पत्परिस्पन्दसम्पाद्यं सर्वस्योपादेय राशेर्या सम्पत्तिरनवद्यताकाष्ठा तस्याः परिस्पन्दः स्फुरितत्वं तेन सम्पाद्यं निष्पादनीयम् । अन्यश्च कीदृशम् - सरसात्मनामार्द्र चेतसामलौकिक चमत्कारकारि लोकोत्तराह्लादविधायि । किंबहुना, तच्च काव्यैकजीवितं काव्यस्य परः परमार्थ इत्यर्थः ।
यथा
समस्त सम्पत्ति के परिस्पन्द से सम्पाद्य अर्थात् (काव्य - निर्माण के लिये ) उपादेय ( शक्ति, व्युत्पत्ति आदि ) समस्त समूह की जो सम्पत्ति अर्थात् रमणीयता का उत्कर्ष, उसका जो परिस्पन्द अर्थात् विलास ( स्फुरितत्व ) उसके द्वारा सम्पाद्य अर्थात् सिद्ध किये जाने योग्य । और किस प्रकार का - सरस आत्मावाले अर्थात् सार्द्रहृदय वालों के अलौकिक चमत्कार का जनक अर्थात् लोकोत्तर आह्लाद को प्रदान करने वाला । और अधिक कहने से क्या लाभ, वह (तो) काव्य का अद्वितीय प्राण अर्थात् श्रेष्ठ तत्त्व है । जैसे— दोर्मलाबधिसूत्रितस्तनमुरः स्निह्यत्कटाते दृशौ । किञ्चित्ताण्डवपण्डिते स्मितसुधासितोक्तिषु भ्रूलते ।
।
चेतः कन्दलितं स्मारव्यतिकरैर्लावण्यमङ्गैर्वृतं तन्वङ्गचास्तरुणिम्नि सर्पति शनैरन्येव काचिल्लिपिः ॥ १२१ ॥
( उस तन्वी का ) वक्षःस्थल बाहुमूलपर्यंन्त विस्तृत स्तनों से संयुक्त हो गया है, ( उसके ) नेत्र वात्सल्यपूर्ण कटाक्षों से युक्त हो गए हैं तथा मुस्कुराहट रूपी अमृत से सने हुए भाषण के समय ( उसकी ) भौहों की पंक्तियाँ कुछ लास्य में विलक्षण सी हो जाती हैं, ( उसका ) हृदय काम की अवस्थाओं से अङ्कुरित सा हो गया है, एवं उनके अंगों ने ( किसी अपूर्व ही ) लावण्य का वरण किया है, इस प्रकार नवयौवन के आगमनकाल में धीरे-धीरे उस कृशांगी का कुछ ( अपूर्व ) ही विन्यास हो गया है ॥ १२१ ॥ ११ व० जी०