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वक्रोक्तिजीवितम्
वापीतडे कुडुंगा पिअसहि हाउं गएहिं दीसंति | ण घरंति करेण भणति णत्ति बलिउं पुण ण देति ॥ १२० ॥ [ वापीतटे कुरङ्गाः प्रियसखि स्नातु गतैर्दृश्यन्ते । धरन्ति करेण भणन्ति नेति वलितुं पुनर्न ददति ॥ ]
ऐ प्यारी सहेली, बावड़ी के किनारे नहाने गये लोगों के द्वारा [ ऐसे ] मृग देखे जाते हैं जो न तो हाथ पकड़ते हैं, न बोलते हैं और न ही मुड़ कर चले आने देते हैं ।॥ १२० ॥
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सातिशयमौग्ध्यपरिस्पन्दसुन्दरेणः
अत्र कस्याश्चित्प्रमातृभूतायाः स्वभावेन वाच्यमाच्छादित मौचित्यपरिपोषमावहति ।
इस रचना में किसी सुननेवाली सहेली के अत्यधिक भोलेपन की आदत के कारण मनोहारी स्वभाव के द्वारा छिपाया गया हुआ वाच्य अर्थ औचित्य को परिपुष्ट करता है ।
एवमौचित्यमभिधाय साभाग्यमभिधत्तेइत्युपादेयवर्गेऽस्मिन् यदर्थं प्रतिभा कवेः ।
सम्यक् संरभते तस्य गुणः सौभाग्यमुच्यते ॥ ५५ ॥
इस प्रकार औचित्य को बता कर ( अब दूसरे सर्वसाधारण गुण ) सौभाग्य का कथन करते हैं—
इस प्रकार ( शब्द आदि के ) इस उपादेय समूह में जिस ( वस्तु ) के लिये कवि की शक्ति बड़ी सावधानी से व्यापार करती है उस ( वस्तु- काव्य ) का गुण सौभाग्य ( नाम से ) कहा जाता है ।। ५५ ।।
इत्येवंविधेऽस्मिन्नुपादेयवर्गे शब्दाद्यपेयसमूहे यदर्थं यनिमित्तं कवेः सम्बन्धिनी प्रतिभा शक्तिः सम्यक् सावधानतया संरभते व्यवस्यति तस्य वस्तुनः प्रस्तुतत्वात् काव्याभिधानस्य यो गुणः स सौभाग्यमित्युच्यते भण्यते ॥
इस प्रकार के इस उपादेय वर्ग में अर्थात् शब्द आदि के उपायों द्वारा प्राप्त होने योग्य समूह में यदर्थ अर्थात् जिसके निमित्त से कवि की यानी कवि सम्बन्धिनी प्रतिभा अर्थात् शक्ति सम्यक् अर्थात् सावधानी के साथ संरम्भ करती है; व्यापार करती है उस वस्तु का अर्थात् यहाँ प्रसङ्गप्राप्त होने के कारण काव्य नामक ( वस्तु का ) जो गुण है वह 'सौभाग्य' ( गुण है), इस प्रकार कहा जाता है ।
तच्च न प्रतिभासंरम्भमात्र साध्यम्, किन्तु तद्विहितसमस्तसामग्रीसम्पाद्यमित्याह -