________________
१५८
वक्रोक्तिजीवितम्
कारण अलङ्कार को पुष्ट करते हैं और उसी से औचित्य गुण का परिपोषण होता है । तथा दूसरे पद्य में कवि ने जो दूसरे राजा के हाथियों का सुरगजों की दानरेखाओं की पक्तियों की गन्ध को न सहन कर सकने का वर्णन किया है, वह देवगजों की अलौकिक गन्ध का प्रतिपादन करने के कारण अत्यन्त ही ओचित्यपूर्ण है अतः उस • " से औचित्य गुण
परिपुष्ट हुआ है ।) तथा दूसरे ( ' हे नागराज' इत्यादि ॥। ११७ ।। ) में स्वभाव के औचित्यपूर्ण कथन से ( औचित्य गुण परिपुष्ट हुआ है ) । ( अर्थात् उसमें शेषनाग के औदार्य का सत्य वर्णन हुआ है। जिससे औचित्य परिपुष्ट हो रहा है | )
अत्र पूर्वत्रोदाररणयोर्भूषणगुणेनैव तद्गुणपरितोषः, इतरत्र च स्वभावौदार्याभिधानेन ।
औचित्यस्यैव छायान्तरेण स्वरूपमुन्मीलयति - यत्र वक्तुः प्रमातुर्वा वाच्यं शोभातिशायिना । आच्छाद्यते स्वभावेन तदप्यौचित्यमुच्यते ॥ ५४ ॥
औचित्य गुण का ही दूसरी शोभा के साथ स्वरूप-निरूपण कर रहे हैंजहाँ पर कहने वाले अथवा सुनने वाले के रमणीयता के अतिशय से युक्त स्वभाव के द्वारा अभिधेय वस्तु आच्छन्न हो जाती है, वह भी औचित्य ( गुण ) कहा जाता है ।। ५४ ।।
यत्र यस्मिन वक्तुरभिधातुः प्रमातुर्वा श्रोतुर्वा स्वभावेन स्वपरिरूपन्देन वाच्यमभिधेयं वस्तु शोभातिशायिना रामणीयकमनोहरेण आच्छाद्यते संक्रियते तदप्यौचित्यमेवोच्यते । यथा
जहाँ अर्थात् जिस ( गुण ) में वक्ता अर्थात् कथन करने वाले अथवा प्रमाता अर्थात् श्रवण करने वाले के शोभा के अतिशय से युक्त अर्थात् सौन्दर्य के कारण चित्ताकर्षक स्वभाव अर्थात् अपने धर्म के द्वारा वाच्य अर्थात् अभिधेय वस्तु आच्छादित कर दी जाती है अर्थात् छिपा दी जाती है ( दबा दी जाती है ) वह भी औचित्य ( नामक गुण ) ही कहा जाता है । जैसे - विश्वजित् यज्ञ में सर्वस्व दान दे देने के बाद रघु के पास भिक्षार्थ गए हुए मुनि कौत्स उनसे कहते हैं
शरीरमात्रेण नरेन्द्र तिष्ठनाभासि तीर्थप्रतिपादितद्धिः । आरण्यकोपात्तफलप्रसूतिः स्तम्बेन नीवार इवावशिष्टः ॥ ११८ ॥
रपति ! ( रघु ! दान योग्य ) सत्पात्रों को (अपनी ) सम्पत्ति प्रदान कर, केवल देह से ही स्थित (आप), अरण्य - निवासियों द्वारा गृहीत फल रूप