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प्रथमोन्मेषः
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किया है जो एक लोकोत्तर वैचित्र्य के समर्थक हैं। अतः यहां माधुर्य गुण होगा। एवं माधुर्यमभिधाय प्रसादमभिधत्ते
असमस्तपदन्यासः प्रसिद्धः कविवर्त्मनि । किश्चिदोजः स्पृशन् प्रायः प्रसादोऽप्यत्र दृश्यते ॥ ४५ ॥ इस प्रकार माधुर्य गुण को बताकर अब प्रसाद गुण का कथन प्रस्तुत करते हैं
इस विचित्रमार्ग में विद्वानों ( कवियों) के मार्ग में प्रसिद्ध, कुछ-कुछ ओज का स्पर्श करता हुआ, समासहीन पदों की रचना रूप, प्रसाद नामक गुण भी प्रायेण देखा जाता है ॥ ४५ ॥ __असमस्तानां समासरहितानां पदानां न्यासो निबन्धः कविवमनि विपश्चिन्मार्गे यः प्रसिद्धः प्रख्यातः सोऽप्यस्मिन् विचित्राख्ये प्रसादाभिधानो गुणः किश्चित् कियन्मात्रमोजः स्पृशन्नुत्तानतया व्यवस्थितः प्रायो दृश्यते प्राचुर्येण लक्ष्यते । बन्धसौग्दर्यनिबन्धनत्वात् । तथाविधस्यौजसः समासवती वृत्तिः 'ओजः'-शब्देन चिरन्तनैरुच्यते । तदयमत्र परमार्थः-पूर्वस्मिन् प्रसादलक्षणे सत्योजःसंस्पर्शमात्रमिहा 'विधीयते । यथा
असमस्त अर्थात् समास से वजित पदों का न्यास अर्थात् निबन्ध ( सङ्घटन ) जो कवियों के मार्ग में अर्थात् पण्डितों की पद्धति में प्रसिद्ध अर्थात् प्रकृष्ट रूप से ख्यातिप्राप्त है वह भी प्रसाद नाम का गुण इस विचित्र नामक ( मार्ग) में कुछ, थोड़ा-सा ओज का स्पर्श करता हुआ अर्थात् उत्तान ढङ्ग से ( कुछ-कुछ समस्त पदों से युक्त रूप में ) व्यवस्थित हुआ प्रायः दिखाई पड़ता है अर्थात् प्रचुर रूप से लक्षित होता है । उस प्रकार के ओज की समास से युक्त वृत्ति को, वाक्य-विन्यास ( सङ्घटना) की रमणीयता का कारण होने से चिरन्तन ( आलङ्कारिकों ) ने 'ओज' शब्द से व्यवहृत किया है। इसका वास्तविक अर्थ यह है कि पहले ( सुकुमार मार्ग के गुणों का प्रतिपादन करते समय ३१ वीं कारिका में किए गए ) प्रसाद के लक्षण के विद्यमान रहने पर यहां (इस विचित्रमार्ग के प्रसाद गुण में ) केवल ओज के संस्पर्श का ही विधान किया जाता है । ( शेष लक्षण सुकुमारमार्ग के प्रसाद गुण जैसा ही है। अर्थात् यहां भी प्रसाद गुण रस एवं वक्रोक्ति विषयक अभिप्राय को अनायास ही प्रकट कर देने वाला एवं पढ़ते