________________
१४४
दक्रोक्तिजीवितम्
ही तुरन्त अर्थ की प्रतीति कराने वाला होना चाहिए। हाँ, यहाँ उसमें एक यही विशेषता होगी कि वह कुछ-कुछ ओज का स्पर्श करता हआ होगा)॥ जैसे
अपाङ्गगततारकाः स्तिमितपक्ष्मपालीभृतः स्फुरत्सुभगकान्तयः स्मितसमुद्गतिद्योतिताः। विलासभरमन्थरास्तरलकल्पितकभ्रवो
जयन्ति रमणेऽर्पिताः समदसुन्दरीदृष्टयः ।। १०४ ॥ पति की ओर फेंकी गई, नेत्रों के प्रान्त भाग में स्थित कनीनिका वाली निश्चल पलकों को धारण करने वाली, स्फुरित होती हुई मनोहर छवि से युक्त, मुस्कुराहट आ जाने के कारण द्युतिमान्, विलास के भार से मन्द गति वाली तथा एक भौंह को ञ्चचल बना देने वाली, हर्षित सुन्दरियों की आखें, सर्वोत्कृष्ट रूप से विद्यमान हैं ॥ १०४ ॥
(यहाँ पर कवि ने शृङ्गार रस को बड़े ही रकणीय ढङ्ग से प्रस्तुत किया है। पदों का प्रयोग अर्थ को तुरन्त स्पष्ट कर देने वाला है ? तथा छोटे-छोटे समासों से युक्त होने के कारण सभी पद कुछ-कुछ ओज का स्पर्श कर रहे हैं। अतः यह विचित्र मार्ग के प्रसाद गुण का उदाहरण हुआ)॥ प्रसादमेव प्रकारान्तरेण प्रकटयति
गमकानि निबध्यन्ते वाक्ये वाक्यान्तराण्यपि । पदानीवात्र कोऽप्येष प्रसादस्यापरः क्रमः ॥४६ ॥ (विचित्र मार्ग के उसी ) प्रसाद गुण को दूसरे ढङ्ग से प्रस्तुत करते हैं
यहाँ ( इस विचित्र-मार्ग में एक ही) वाक्य में (व्यङ्गयार्थ के) समर्पक अन्य (अवान्तर ) वाक्यों का भी पदों के समान (परस्पर अन्वित ढङ्ग से) सनिवेश किया जाता है। यह (विचित्र मार्ग के ) प्रसाद (गुण), का कोई ( अपूर्व ही वाक्य की शोभा को उत्पन्न करने वाला) दूसरा प्रकार है ॥ ४६॥
अत्रास्मिन् विचित्रे यद्वाक्यं पदसमुदायस्तस्मिन् गमकानि समर्पकाण्यन्यानि वाक्यान्तराणि निबध्यन्ते निवेश्यन्ते । कथम्-पदानीव पदवत् , परस्परान्वितानीत्यर्थः । एष कोऽप्यपूर्वः प्रसादस्यापरः क्रमः बन्धच्छायाप्रकारः । यथा
यहाँ अर्थात् इस विचित्र (मार्ग ) में जो वाक्य अर्थात् पदों का समूह है उसमें गमक अर्थात् ( व्यङ्गपार्थ के ) समर्पक अन्य दूसरे ( अवान्तर ) वाक्य