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अथमोन्मेषः मार्गस्वरूपं चर्चनीयम् । तथैव च विचित्रवक्रत्वविज़म्भितं हर्षचरिते प्राचुर्येण भट्टबाणस्य विभाव्यते, भवभूतिराजशेखरविरचितेषु बन्ध. सौन्दर्यसुभगेषु मुक्तकेषु परिदृश्यते । तस्मात् सहृदयैः सर्वत्र सर्व मनुसतव्यम् । एवं मार्गत्रितयलक्षणं दिक-मात्रमेव प्रदर्शितम् । न पुनः साकल्येन सत्कविकौशलप्रकाराणां केनचिदपि स्वरूपमभिधातुं पार्यते । मार्गेषु गुणानां समुदायधर्मता। यथा न केवलं शब्दादिधर्मत्वं तथा । तल्लक्षणव्याख्यानावसर एव प्रतिपादितम् ।
यहाँ ( इस मध्यममार्ग के प्रसंग में, उस मार्ग के गुणों के सीमित होने के कारण ( माधुर्यादि) गुणों के उदाहरणों को (बानगी के लिए) प्रदर्शित कर दिया गया है, लेकिन पद पद में ( रहने से छायाचिव्य के अपरिमित होने से उसका बता सकना असम्भव होने के कारण, उस ) छायावैचित्र्य का सहृदयों को स्वयम् अनुसरण कर लेना चाहिए । हाँ, अनुसरण करने के लिए कुछ दिग्दर्शन हम कराये देते हैं । जैसे-मातृगुप्त, मायुराज तथा मञ्जीर आदि ( कवियों) के काव्य सुकूमार भाव एवं विचित्र भाव से सम्मिश्रित रमणीयता से रसमय सत्पन्न होने वाले कहे जा सकते हैं। ( अतः) वहाँ (मायुराजादि के काव्यों में ) मध्यम मार्ग से संयुक्त स्वरूप का विचार करना चाहिए। ( अर्थात् मध्यममार्ग की छाया का वैचित्र्य वहीं खोजना चाहिए)। इसी प्रकार कालिदास एवं सर्वसेन इत्यादि ( महाकवियों ) के काव्य स्वाभाविक सुकुमारता से सुन्दर दिखाई पड़ते हैं । ( अतः ) वहाँ ( कालिदासादि के काव्यों में ) सुकुमार मार्ग के स्वरूप की चर्चा करना चाहिए। उसी प्रकार ( महाकवि ) भट्ट बाण के 'हर्ष चरित' ( नामक गद्यग्रन्थ ) में विविध वक्रताओं का विलास दिखाई पड़ता है, एवं भवभूति तथा राजशेखर विरचित सङ्घटना के सौन्दर्य से मनोहर मुक्तकों में (विविध वक्रताओं का विलास ) पाया जाता है । ( अतः सख्दयों को विचित्रमार्ग का स्वरूप इन कवियों की रचनाओं में देखना चाहिए ) । इस लिए सहृदयों को सर्वत्र ( सभी कवियों की रचनाओं में ) सभी ( मार्गों के स्वरूप ) का अनुसरण करना चाहिए।
इस प्रकार ( अब तक २४ वीं कारिका से ५२ वी कारिका पर्यन्त ) तीन मार्गों का लक्षण कर (हमने ) दिङ्मात्र का प्रदर्शन किया है । क्योंकि श्रेष्ठ कवियों के ( काव्य-निर्माण के ) कौशल के ( असङ्ख्य ) प्रकारों का साकल्येन स्वरुप निरूपण करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता । ( सुकुमारादि) मागों में (प्रसादादि ) गुणों की समुदायधर्मता है।