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प्रथमोन्मेषः
'प्रत्येक म स्खलित स्वपरिस्पन्दमहिम्ना कस्यचिन्न्यूनता ।
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तद्विदाह्लादकारित्यपरिसमाप्तेर्न
यद्यपि कवि स्वभाव के भेद के ( मार्गभेद का ) आधार होने के कारण ( कवियों के अनन्त स्वभाव होने से मार्गों में भी ) असंख्य प्रकारों से भिन्नता( आ जाना ) अनिवार्य है, फिर भी उनकी संख्या निर्धारित कर सकना असम्भव होने से, सामान्य रूप से तीन भेदों से युक्त होना ही युक्तियुक्त ( प्रतीत होता ) है । और इस प्रकार मनोहर काव्य को स्वीकृत करने के सन्दर्भ में - ( १ ) स्वभाव से सुकुमार ( काव्य की ) एक राशि है, उससे भिन्न सौन्दर्यहीन ( काव्य ) के उपादेय न होने से । ( २ ) उस ( सुकुमार स्वभाव काव्य ) से भिन्न सौन्दर्ययुक्त ( दूसरा प्रकार ) विचित्र कहा जाता है । ( ३ ) इन ( सुकुमार एवं विचित्र ) दोनों के ही रमणीय होने से इन दोनों की छाया पर आधारित इस ( उभयात्मक मध्यम भेद ) का सौन्दर्ययुक्त होना ( स्वतः ही ) तर्कसङ्गत हो जाता है । ( इस प्रकार ये सुकुमार. विचित्र और मध्यम तीनों ही स्वभावतः रमणीय होते हैं) । अतः इन तीनों में हर एक की अपने पूर्ण परिस्पन्द की महत्ता के कारण सहृदयों को आह्लाद प्रदान करने में परिसमाप्ति होने से किसी की भी न्यूनता नहीं है । ( सभी समान महत्त्व के हैं और रमणीय होते हैं ) ।
टिप्पणी- आचार्यं कुन्तक ने अब तक देशभेद के आधार पर रीतिभेद की स्थापना का खण्डन कर कवि-स्वभाव के आधार पर मार्गभेद की स्थापना की। उन्होंने यह बताया कि कवि स्वभाव के अनुसार उसी ढंग की सहज शक्ति कवि में उल्लसित होती है तथा उस शक्ति के द्वारा वह कवि उसी प्रकार की व्युत्पत्ति प्राप्त करता है तथा शक्ति और व्युत्पत्ति के बल पर अभ्यास करता हुआ वह काव्य रचना करता है। इस प्रकार हम यह देखते हैं कि शक्ति तो कवि में सहज रूप से विद्यमान रहती है, किन्तु व्युत्पत्ति और अभ्यास आहार्य - रूप से प्राप्त होते हैं जब कि काव्य रचना में केवल शक्ति ही नहीं कारण होती अपि तु व्युत्पत्ति और अभ्यास भी कारण होते हैं । अतः पूर्वपक्षी आहार्य रूप व्युत्पत्ति और अभ्यास की स्वाभाविकता में संदेह करता हुआ प्रश्न करता है :
ननु च शक्त्योरान्तरतम्यात् स्वाभाविकत्वं वक्तुं युज्यते, व्युत्पत्यभ्यासयोः पुनराहार्ययोः कथमेतद् घटते ? नैव दोषः यस्मादास्तां तावत् काव्यकरणम्, विषयान्तरेऽपि सर्वस्य कस्यचिवनादिवासनाभ्यासाधिवासितचेतसः स्वभावानुसारिणावेष व्युत्पस्याभ्यासौ प्रवर्तेते |
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