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वक्रोक्तिजीवितम् निर्जन स्थल में काम-केलि के आनन्द से युक्त पार्वती के द्वारा, मुस्कुराहट के साथ ( शिवललाट पर स्थित ) चन्द्रकला को खींच कर ( अपने ) सिर पर स्थापित कर 'क्या मैं इस ( चन्द्रलेखा) से शोभायमान हो रही रही हूँ' ऐसा प्रश्न किये गए चन्द्रमौलि ( भगवान् शङ्कर ) का (पार्वती का किया गया) परिचुम्बन रूप उत्तर आप सबकी रक्षा करे ॥ ८१॥
अत्र पदानामसमस्तत्वं शब्दार्थरमणीयता विन्यासवैचित्र्यं च त्रितयमपि चकास्ति । ___ यहां पर पदों का ( १ ) ( प्रचुर ) समासों से वर्जित होना, ( अर्थात् यहां जो 'शशाङ्कमौलेः' अथवा 'क्रीडारसेन' में समासों का प्रयोग हुआ है वे कोई कठिन अथवा दीर्घ समास नहीं हैं जिनसे कि अर्थ-प्रतीति में कुछ भी बाधा पड़े, अपितु वे एक अपूर्व चमत्कार की ही सृष्टि करते हैं ) (२) ( कर्णपटुका आदि दोषों से रहित मनोहर ) शब्दों तथा ( सद्यः रस को परिपुष्ट करनेवाले रमणीय ) अर्थों का सौन्दर्य, एवं ( ३) (वाक्य) विन्यास की विचित्रता, ये तीनों ही (माधुर्य गुण के लिये अपेक्षित वस्तुवें) यहाँ सिमान है। तदेवं माधुर्यमभिधाय प्रसादमभिधत्ते
अक्लेशव्यञ्जिताकूतं झगित्यर्थसमर्पणम् । रसवक्रोक्तिविषयं यत्प्रसादः स कथ्यते ॥ ३१॥
तो इस प्रकार 'माधुर्य' ( नामक सुकुमार मार्ग के प्रथम एवं प्रधान गुण) का कथन कर 'प्रसाद' ( नामक दूसरे गुण का) अभिधान करते हैं
(शृङ्गारादि) रस एवं ( सर्वालङ्कारसामान्य ) वक्रोक्तिविषयक अभिप्राय को अनायास ही प्रकट कर देने वाला, एवं अर्थ की तुरन्त प्रतीति कराने वाला जो ( गुण ) है वह 'प्रसाद' (गुण होता है ) ऐसा कहा जाता है।॥ ३१ ॥
मगिति प्रथमतरमेवार्थसमर्पणं वस्तुप्रतिपादनम् । कीदृशम्अक्लेशव्यखिताकूतम् अकदर्थनाप्रकटिताभिप्रायम् । किंविषयम्रसवक्रोक्तिविषयम् । रसाः शृङ्गारादयः, वक्रोक्तिः सकललकारसामान्य विषयो गोचरो यस्य तत्तथोक्तम् । स एव प्रसादाख्यो गुणो कथ्यते मण्यते। अत्र पदानामसमस्तत्वं प्रसिद्धामिधानत्वम् अव्यवहितसम्बन्धत्वं समाससद्भावेऽपि गमकसमासयुक्तता व परमार्थः। 'आकूत' शब्दस्ता. त्पर्यविच्छिचौक वर्तते । उदाहरणं यथा