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वक्रोक्तिजीवितम्
वर्णन ) प्रतीयमान महिमाशाली व्यक्ति का बोध करता हुआ अत्यन्त आह्लादकारी हो जाता है ।
यत्र
विचित्रमेव प्रकारान्तरेणोन्नीलयति - प्रतीयमानतेत्यादि । यस्मिन् प्रतीयमानता गम्यमानता काव्यार्थस्य मुख्यतया विवक्षितस्य वस्तुनः कस्यचिदनाख्येयस्य निबध्यते । कया युक्त्या - वाच्यवाचकवृत्तिभ्यां शब्दार्थशक्तिभ्याम् । व्यतिरिक्तस्य तदतिरिक्तवृत्तेरन्यस्य व्यंग्यभूतस्याभिव्यक्तिः क्रियते । 'वृत्ति' शब्दोऽत्र शब्दार्थयोस्तत्प्रकाशनसामर्थ्यमभिधत्ते । एष च ' प्रतीयमान' - व्यवहारो वाक्यवक्रताव्याख्यानावसरे सुतरां समुन्मील्यते । अनन्तरोक्तमुदाहरणद्वयमत्र योजनीयम् ।
यथा वा
विचित्र ( मार्ग ) को ही दूसरे ढंग से प्रस्तुत करते हैं- प्रतीयमानताइत्यादि ( ४० वीं कारिका के द्वारा ) । जहाँ अर्थात् जिस ( मार्ग ) में काव्यार्थ अर्थात् प्रधान ढंग से कहने के लिए अभिप्रेत किसी अनिर्वाच्य वस्तु की प्रतीयमानता अर्थात् व्यङ्ग्यरूपता ( गम्यमानता ) का ( कवि द्वारा निबन्धन किया जाता है । किस ढङ्ग से- - वाच्य और वाचक की वृत्तियों द्वारा अर्थात् शब्द और अर्थ की ( प्रकाशक ) शक्तियों के द्वारा । व्यतिरिक्तअर्थात् उस ( शब्द और अर्थ की प्रकाशक अभिधा शक्ति ) से भिन्न ( व्यंजना ) शक्ति वाले अन्य व्यङ्गयभूत ( पदार्थ ) को प्रकाशित किया जाता है | यहाँ ( कारिका के - ' वाच्यवाचकवृत्तिभ्याम् ' - में प्रयुक्त ) 'वृत्ति' शब्द, शब्द तथा अर्थ के उस ( व्यङ्गभूत अर्थ ) के व्यक्त करने की सामर्थ्य का बोध कराता है । और यह व्यङ्ग्य ( प्रतीयमान ) अर्थ का व्यवहार वाक्यवक्रता की व्याख्या करते समय भली भाँति सुस्पष्ट हो जायगा । इस उदाहरण रूप में अभी-अभी उदाहृत किये गये ( " तापः स्वात्मनि " || || एवं "विशति यदि नो कचित्कालं- ॥६६॥ दोनों पद्यों की योजना कर लेना चाहिए। ( अर्थात् उन पद्यों में जो प्रतीयमान ढंग से महापुरुषपरक अर्थ हमारे सम्मुख आता है वह अभिधेय न होकर व्यवना शक्ति द्वारा प्रतिपाद्य रूप में व्यङ्गय बनकर हमारे सामने उपस्थित होता है । अथवा जैसे ( इसका अन्य उदाहरण )
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दोर्न हरन्ति बापपयसां धारा मनोज्ञां श्रियं निश्वासा न कदर्थयन्ति मधुरां बिम्बाधरस्य वृतिम् । तस्यस्त्वद्विर हे विपक्वल बलीलावण्य संवादिनी छाया कापि कपोलयोरनुदिनं सन्ध्याः परं पुष्यति ॥ १०० ॥