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वक्रोक्तिजीवितम्
धर्म के रूप में प्रसिद्ध माधुर्य गुण भी उसी प्रकार ( गुड़ इत्यादि मधुर द्रव्यों की भांति ) आह्लादजनकता रूप सादृश्य के कारण उपचार से ( लक्षणया ) काव्य में ( माधुर्यं गुण के रूप में ) कहा जाता है । उसी प्रकार स्वच्छ जल अथवा स्फटिक मणि आदि ( द्रव्यों के ) धर्म रूप से प्रसिद्ध प्रसाद गुण भी स्पष्ट रूप से ( अर्थ को ) प्रकट कर देने रूप सादृश्य के आधार पर उपचार से ( काव्य के प्रसाद गुण के रूप में प्रसिद्ध होकर ) सद्यः अर्थ प्रतीति की रमणीयता को प्राप्त होता है । तथा उसी प्रकार कवि की सहज प्रतिभा के कौशल से निष्पन की गयी कान्ति से रमणीय वाक्यविन्यास का सौन्दर्य सहृदयों को आनन्द प्रदान करने रूप सामान्य के आधार पर उपचार से लावण्य शब्द से भिन्न किसी अन्य शब्द के द्वारा अभिधेयता को नहीं सहन कर पाता ( अर्थात् उसे केवल लावण्य शब्द के द्वारा ही व्यक्त किया जा सकता है ) तथा उसी प्रकार काव्य में स्वाभाविक रूप से स्निग्ध कान्तियुक्तता आभिजात्य शब्द के द्वारा कही जाती है (जैसेरमणी आदि के अलौकिक सहज स्निग्ध कान्ति को आभिजात्य कहते हैं इन दोनों में भी उपचार का हेतु सहृदयहृदयाह्लादकारित्व रूप सामान्य ही है ।) ननु च केचित्प्रतीयमानं वस्तु ललनालावण्य साम्यालावण्यमित्युत्पादितप्रतीति
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प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् | यत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तमाभाति: लावण्यमिवाङ्गनासु ॥ ८८ ॥
( पूर्वपक्षी यह प्रश्न करता है कि ) कुछ ( आनन्दवर्द्धन आदि आचार्यों ) ने सुन्दरियों के लावण्य के साम्य के कारण प्रतीयमान ( व्यग्य ) वस्तु को लावण्य ऐसा कहा है
वाच्य को उपमा आदि प्रकारों से प्रसिद्ध बताकर प्रतीयमान रूप अर्थ के दूसरे भेद का प्रतिपादन करते हैं
कि महाकवियों की वाणी के प्रतीयमान नामक वस्तु दूसरी ही ( वाच्य सेनि वस्तु ) है, जो अङ्गनाओं में उनके प्रसिद्ध अवयवों से भिन्न लावण्य के समान विशेषरूप से सुशोभित होती है ॥ ८८ ॥
तत्कथं बन्धसौन्दर्यमात्रं लावण्यमित्यभिधीयते ? नैष दोष:, यस्मादनेन दृष्टान्तेन वाच्यवाचक लक्षणप्रसिद्धावयवव्यतिरिक्तत्वेनास्तित्वमात्रं साध्यते प्रतीयमानस्य, न पुनः सकललोकलोचनसंवेद्यस्य ललनालावण्यस्य । सहृदयहृदयानामेव संवेद्यं सत् प्रतीयमानं समीकर्तु - पार्यते ।