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प्रथमोन्मेषः
१२५ कवि के प्रयत्न की ( अर्थात् आहार्य कौशल की अपेक्षा न रखने वाले केवल सहज प्रतिभा से निष्पन्न ) शब्द और अर्थ की वक्रता का कोई स्वाभाविक भेद स्फुरित होता हुआ दिखाई देता है । जैसे
कोऽयं भाति प्रकारस्तव पवनपदं लोकपादाहतीनां तेजस्विजातसेव्ये नभसि नयसि यत्पांसुपूरं प्रतिष्ठाम् | यस्मिन्नुत्थाप्यमाने जननयनपथोपद्रवस्तावदास्तां केनोपायेन सह्यो वपुषि कलुषतादोष एष त्वयैव ।। ८६ ॥ हे पवन ! यह तुम्हारा कौन-सा ढङ्ग है कि ( तुम ) लोक के पैरों से आहत किए जाने के पात्र धुलि समुदाय को तेजस्वियों के समूह द्वारा उपभोग किए जाने वाले आकाश में ( उड़ा) ले जाते हो ( अर्थात् इतने नीच को इतना ऊंचा स्थान क्यों देते हो) जिसके उठाये जाने पर लोगों के दृष्टिपथ ( नेत्रों ) में ( होने वाले कष्ट रूप ) उपद्रव की बात तो जाने दीजिए ( लेकिन जो उसे आकाश में ले जाते समय तुम्हारे ) शरीर में यह कालुष्य रूप दोष ( आ जाता ) है ( उसे ) तुम्हीं किस प्रकार सहन कर सकते हो। ( अर्थात् वह धूलि समूह जो कि इतने ऊँचे उठाने वाले आपको भी कालुष्य दोष से युक्त कर देता है, उस नीच को इतने ऊँचे उठाने का यह आपका कौन-सा ढंग है । ) ॥८६॥
अत्राप्रस्तुतप्रशंसालक्षणोऽलंकारः प्राधान्येन वाक्यार्थः । प्रतीयमानपदार्थान्तरत्वेन प्रयुक्तत्वात्तत्र विचित्रकविशक्तिसमुल्लिखितवक्रशब्दार्थोपनिबन्धमाहात्म्यात् प्रतीयमानमप्यभिधेयतामिव प्रापितम् | प्रक्रम एव प्रतिभासमानत्वान्न चार्थान्तरप्रतीतिकारित्वेऽपि पदानां श्लेषव्यपदेशः शक्यते कर्तुम् । वाच्यस्य समप्रधानभावेनानवस्थानात् । अर्थान्तरप्रतीतिकारित्वं च प्रतीयमानार्थस्फुटत्वावभासनार्थमुपनिबध्यमानमतीवचमत्कारकारितां प्रतिपद्यते ।
यहाँ 'अप्रस्तुतप्रशंसा' रूप अलंकार मुख्यतया वाक्यार्थ है। प्रतीयमान (किसी निम्न श्रेणी के लोगों का उद्धार करने वाले परोपकारी महापुरुष के वर्णन रूप ) अन्य पदार्थ के रूप में (वायु के चरित्र के वर्णन के ) प्रयुक्त होने से वहां कवि की विचित्र प्रतिभा से निष्पन्न ( समुल्लसित ) वक्र (वैचित्र्ययुक्त ) शब्दों एवं अर्थों के प्रयोग के माहात्म्य से ( महापुरुष की प्रशंसा रूप अर्थ तुरन्त प्रतीत हो जाने के कारण ) प्रतीयमान होते हुए भी वाच्यार्थ सा हो गया है। तथा आरम्भ में ही ( श्लोक के पढ़ते ही महापुरुषचरितवर्णन रूप प्रतीयमान अर्थ के ) प्रतिभासित हो जाने से ( उस श्लोक में