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प्रथमोन्मेषः
यथा च कुमारसम्भवे ( ३।३५ )
द्वन्द्वानि भावं क्रियया विवत्रः ॥ ७७ ॥
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और जैसे ( दूसरा उदाहरण ) कुमारसम्भव में ( ३।३५ ) से उद्धृत किया जा सकता है जहाँ कवि वसन्तऋतु के आगमन का वर्णन करते हुए कहता है कि - वसन्त ऋतु के आगमन काल में जंगली पशुपक्षियों के ) द्वन्द्वों ने ( अपने ) भावों को क्रिया द्वारा व्यक्त किया ।। ७७ ।
इतः परं प्राणिधर्मवर्णनम्, यथा
क्रेण च स्पर्शनिमीलिताक्षी मृगीमकण्डूयत
कृष्णसारः ॥ ७८ ॥
इसी के अनन्तर प्राणियों के धर्म का वर्णन ( स्वभाव की प्रधानता से युत्पत्तिजन्य कौशल का तिरस्कार कर देने वाला है ) जैसे --
कृष्णसार ( मृगविशेष ) ने ( सींगों के ) स्पर्श ( जन्य आनन्द ) से बन्द किए हुए आंखों वाली मृगी को सींग से खुजलाया ॥ ७८ ॥
( यहाँ भी मृग एवं मृगी के स्वभाव का वर्णन ही इतना सहृदयों के लिये चमत्कारजनक है कि अन्य व्युत्पत्तिविहित कविकौशल उसके आगे य सिद्ध होते हैं । )
अन्यच्च
कीदृश: - रसादिपरमार्थज्ञमनः संवाद सुन्दरः । रसाः शृङ्गारादयः । तदादिग्रहणेन रत्यादयोऽपि गृह्यन्ते । तेषां परमार्थः परमरहस्यं तब्जानन्तीति तज्ज्ञास्तद्विदस्तेषां मनःसंवादो हृदयसंवेदनं स्वानुभवगोचरतया प्रतिभासः तेन सुन्दरः सुकुमारः सहृदयहृदयाह्लादकारी वाक्यस्योपनिबन्ध इत्यर्थः । अत्रोदाहरणानि रघौ रावणं निहत्य पुष्पकेणागच्छतो. रामस्य सीतायास्तद्विरहविधुर हृदयेन मयास्मिनस्मिन् समुद्देशे किमप्येवंविधं वैशसमनुभूतमिति वर्णयतः सर्वाण्येव वाक्यानि । यथा
और किस प्रकार का है ( वह सुकुमार मार्ग ) - रसादि के परमार्थ को जानने वालों के मनः संवाद से सुन्दर । रस अर्थात् शृङ्गारादि । उस ( रस ) के साथ आदि के ग्रहण के द्वारा रति आदि ( स्थायी भावों ) का भी ग्रहण हो जाता है। उन ( रसादि ) का ( जो ) परमार्थ अर्थात् परम रहस्य ( है ), उसे जानते हैं जो वे हुये रसादि के परमार्थं को जानने वाले उनका मनः संवाद अर्थात् हार्दिक ज्ञान अर्थात् स्वानुभवगम्य प्रतीति, उससे सुन्दर अर्थात् सहृदयों के हृदयों को आनन्दित करने वाले सुकुमार वाक्य का निबन्धन ( जहाँ होता है वह सुकुमार मार्ग होता है) इस विषय के