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वक्रोक्तिजीवितम् है। अतः नायक-नायिका रूप में · वसन्त एवं वनस्थली के पूर्ण सामञ्जस्य को स्थापित करते हुए ये सभी पद एक अपूर्व चमत्कार की सृष्टि करते हैं । ) ___ यश्चान्यच्च कीदृशः-भावस्वभावप्राधान्यन्यक्कृताहार्यकौशलः । भावाः पदार्थास्तेषां स्वभावस्तत्त्वं तस्य प्राधान्यं मुख्यभावस्तेन न्यक्कृतं तिरस्कृतमाहार्य व्युत्पतिविहितं कौशलं नैपुण्यं यत्र स तथोक्तः । तदयमभिप्रायः-पदार्थपरमार्थमहिमैव कविशक्तिसमुन्मीलितः, तथाविधो यत्र विजम्भते । येन विविधमपि व्युत्पत्तिविलसितं काव्यान्तरगतं तिरस्कारास्पदं संपद्यते । अत्रोदाहरणं रघुवंशे मृगयावर्णनपरं प्रकरणम् , यथा
(इस प्रकार सुकुमार मार्ग की दूसरी विशेषता बता कर अब उसकी तीसरी विशेषता का प्रतिपादन करते हैं-) और जो ( सुकुमार मार्ग है वह ) अन्य किस प्रकार का है-पदार्थों के स्वभाव की प्रधानता से आहार्य कुशलता को तिरस्कृत करने वाला। भाव अर्थात् पदार्थ उनका स्वभाव अर्थात् स्वरूप (परमार्थ तत्त्व), उसका प्राधान्य अर्थात् मुख्यरूपता, उसके द्वारा न्यक्कृत अर्थात् तिरस्कृत किया गया है आहार्य अर्थात व्युत्पत्तिजन्य कौशल अर्थात् निपुणता को जिसमें, वह ( सुकुमार मार्ग होता है ) तो इसका अभिप्राय यह है कि यहां कवि की (सहज) प्रतिभा से ( स्वाभाविक ढङ्ग से) निबद्ध की गई पदार्थ के स्वभाव की महिमा ही उस प्रकार से प्रस्फुटित होती है जिससे अन्य काव्यगत ( कवि की) व्युत्पत्ति का, अनेकों प्रकार का विलास भी उपेक्षणीय हो जाता है। यहां उदाहरण (रूप में ) रघुवंश ( महाकाव्य ) में ( वर्णित ) मृगयावर्णन का प्रकरण ( लिया जा सकता ) है । जैसेतस्य स्तनप्रणयिभिर्मुहुरेणशाबाहन्यमानहरिणीगमनं पुरस्तात् । आविर्बभूव कुशगर्भमुखं मृगाणां यूथं तदप्रसरगवितकृणसारम् ।।७६॥
उस ( राजा ) के सामने से, आगे चलनेवाले गवित कृष्णसार (मृगविशेष ) से युक्त, एवं स्तनों के प्रणयी ( अर्थात् मां का दूध पीने वाले ) मृगछौनों से बार-बार बाधित होते हुए हरिणियों के गमन से युक्त, तथा कुशों के मध्यभाग से युक्त मुख वाले मृगों का समूह, गुजरा ॥ ७६ ॥
(यहाँ पर मृगों के स्वभाव का ही इतना चमत्कारपूर्ण वर्णन कवि ने . प्रस्तुत किया है जिसके आगे अन्य व्युत्पत्ति-विहित कौशलों का कोई महत्त्व नहीं। उससे कहीं अधिक परमार्थ स्वभाब का वर्णन ही सहृदयहृदयाह्लादकारी है।)
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