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प्रथमोन्मेषः तथोक्त ( सुकुमारता के सौन्दर्य से रसमय सम्पन्न होने वाला वैचित्र्य ), जहाँ विराजमान होता है अर्थात् सौन्दर्यातिशय का पोषण करता है ( वह सुकुमार नाम का मार्ग होता है ) इस प्रकार का वाक्य का सम्बन्ध है । जैसे
प्रवृत्ततापो दिवसोऽतिमात्रमत्यर्थमेव क्षणदा च तन्वी । उभौ विरोधक्रियया विभिनौ जायापती सानुशयाविवास्ताम् ॥७४॥
अत्यधिक गर्मी से युक्त दिन एवं अत्यन्त ही कृश (क्षीण ) हुई रात्रि दोनों विरोध क्रिया (अर्थात दिन तापयुक्त होने के कारण कष्ट प्रदान करता है जब कि रात्रि (क्षणदा) शीतलतायुक्त होने से आनन्द प्रदान करती है । अतः दोनों की क्रियायें विपरीत हुई ) के कारण अलग हो गए पश्चात्तापयुक्त पति-पत्नी के समान स्थित हैं ॥ ७४ ।। ___ अत्र श्लेषच्छायाच्छुरितं कविशक्तिमात्रसमुल्लसितमलंकरणमनाहार्य कामपि कमनीयतां पुष्णाति । तथा च 'प्रवृत्तताप' 'तन्वी' इति वाचकौ सुन्दरस्वभावमात्रसमर्पणपरत्वेन वर्तमानावर्थान्तरप्रती. त्यनुरोधपरत्वेन प्रवृत्तिं न समन्येते, कविव्यक्तकौशलसमुल्लसितस्य पुनः प्रकारान्तरस्य प्रतीतावानुगुण्यमात्रेण तद्विदाबादकारितां प्रतिपोते । किं तत्प्रकारान्तरं नाम ?-विरोधविभिन्नयोः शब्दयोरथोंन्तरप्रतीतिकारिणोरूपनिबन्धः । तथा चोपमेययोः सहानवस्थानलक्षणो विरोधः, स्वभावभेदलक्षणं च विभिन्नत्वम् । उपमानयोः पुनरीाकलहलक्षणो विरोधः, कोपात् पृथगवस्थानलक्षणं विभिन्नत्वम् । 'अतिमात्रम्' 'अत्यर्थ' चेति विशेषांद्वतयं पक्षद्वयेऽपि सातिशयताप्रतीतिकारित्वे. नातितरां रमणीयम् । श्लेषच्छायोक्लेशसंपाधाप्ययत्नघटितत्वेनात्र मनोहारिणी।
यहां पर केनल कवि की ( सहज ) प्रतिभा से निष्पन्न, स्वाभाविक एवं श्लेष ( अलङ्कार ) की शोभा से संयक्त ( उपमा नामक ) अलङ्कार किसी अपूर्व रमणीयता को पुष्ट करता है। तथा 'प्रवृत्ततापः' (संतापयुक्त ) एवं 'तन्वी' (क्षीण, दुर्बल ) ये दोनों शब्द केवल (दिन एवं रात के ) सुन्दर स्वभाव को ही बताने के लिए स्थित होकर, ( पति-पत्नी के विरहजन्य ताप एवं कृशता रूप ) अन्य अर्थ की प्रतीति कराने में प्रवृत्त नहीं होते ( अर्थात् प्रकरणवश इन दोनों शब्दों का ग्रीष्मकालिक दिन तथा रात की ही तापयुक्तता एवं क्षीणता अर्थों में भी अभिधा द्वारा नियन्त्रण हो जाता है, पतिपत्नी के विरहजन्य ताप और कृशता का अभिधा द्वारा प्रतिपादन नहीं किया जा सकता) फिर भी कवि द्वारा व्यक्त किए गये कौशल से निष्पन्न
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