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प्रवमोन्मेषः
अत्र 'स्मररिपोः' इति पर्यायः कामपि वक्रतामुन्मीलयति । यस्मात्कामशत्रोः कान्तया मिश्रीभावः शरीरस्य न कथंचिदपि संभाव्यत इति गणानां सद्यःप्रोद्गतविस्मयत्वमुपपन्नम् । सोऽपि पुनः पुनः परिशीलनेनाश्चर्यकारीति 'प्रथम'-पदस्य जीवितम् ।
___ यहाँ ( भगवान् शङ्कर के शिव, महेश्वर, महादेव इत्यादि अनेक पर्यायवाची शब्दों के द्वारा शङ्कर रूप अर्थ का कथन सम्भव होने पर भी चतुर-कवि द्वारा प्रयुक्त ) 'स्मररिपोः' अर्थात् 'कामदेव के शत्रु का' यह ( शङ्कर का वाचक ) पर्यायशब्द किसी ( अनिर्वचनीय) वक्रता को उन्मीलित करता है क्योंकि कामदेव के शत्रु के शरीर का रमणी के (शरीर) के साथ संयक्त होना कदापि सम्भव नही है, इसीलिए ( शिव के) गणों का तुरन्त ही ( ऐसे असम्भव संयोग को देखकर ) उत्पन्न विस्मय से युक्त होना उपयुक्त है और वह ( शिव-पार्वती का असम्भव संयोग ) भी बार-बार परिशीलन करने पर आश्चर्यजनक न होता अतः ( सद्यः विस्मय युक्त हो जाना श्लोक में उपात्त ) 'प्रथम' इस पद का जीवितभूत हो गया है।
एतच्च पर्यायवक्रत्वं दृश्यते । यथा
वाच्यासंभविधर्मान्तरगर्मीकारेणापि
( इस प्रकार 'पर्यायवक्रता' का एक भेद बताकर, अब उसके दूसरे अवान्तर भेद का प्रतिपादन करते हैं कि ) और यह 'पर्यायवक्रता' वाच्य के द्वारा सम्भव न हो सकनेवाले दूसरे धर्म के आधार को लेकर प्रयुक्त पर्यायों में भी देखी जाती है जैसे
अङ्गराज सेनापते राजवल्लभ रक्षेनं भीमाद् दुःशासनम् इति ॥ ४॥
भट्टनारायण विरचित 'वेणीसंहार' नामक नाटक में भीम कर्ण का उपहास करता हुआ कहता है कि हे अङ्गदेश के नरेश ! सेना के स्वामी! राजा ( दुर्योधन) के प्रेमपात्र ! इस दुःशासन की भीम से रक्षा करो ॥ ४५ ॥
अत्र त्रयाणामपि पर्यायाणामसंभाव्यमानतत्परित्राणपात्रत्वलक्षणमकिञ्चित्करत्वं गर्भीकृत्योपहस्यते-रौनमिति ।
यहाँ (भीम के इस कथन में वायरूप कर्म के द्वारा सम्बोधन न कर ) जिन तीन पर्याय रूप विशेषणों का प्रयोग किया गया है उनके द्वारा