________________
प्रथमोन्मेषः सन्देशम् आमोदः सुकुमारवस्तुधर्मो रक्षकत्वं नाम, · तेन सुन्दरं यञ्जकत्वरमणीयम् । यथा
तद्विदाह्लादकारिता अर्थात् काव्य को समझने वालों को आनन्दित करने की योग्यता। कैसी है-तद्विदाह्लादकारिता-वाच्य, वाचक और वक्रोक्ति तीनों के अतिशय से भिन्न । वाच्य अर्थात् अभिधेय अर्थ, वाचक अर्थात् शब्द, वक्रोक्ति अर्थात् अलंकार-इन तीनों का जो अतिशय अर्थात् कोई ( अलौकिक ) उत्कर्ष उससे उत्तर अर्थात् भिन्न, स्वरूप और अतिशय ( दोनों से भिन्न) स्वरूप से भिन्न अर्थात् वह कोई दूसरा तत्त्व है ( ऐसी प्रतीति होती है ) और अतिशय से भिन्न अर्थात् इन ( वाच्य, वाचक और वक्रोक्ति) दोनों से भी लोकोत्तर है । और कैसा है वह तद्विदाह्लादकारित्व-किसी ( अलौकिक या अनिर्वचनीय (आमोद से सुन्दर । कोई अनिर्वचनीय सहृदयहृदय के अनुभव द्वारा अनुभव किया जा सकनेवाला आमोद अर्थात् रंजकता नामक सुकुमार वस्तु का धर्म, उससे सुन्दर रंजकता से रमणीय । जैसे
हंसानां निनदेषु यः कवलितैरासज्यते कूजतामन्यः कोऽपि कषायकण्ठलुठनादाघर्घरो विभ्रमः । ते सम्प्रत्यकठोरवारणवधूदन्ताङ्करस्पर्धिनो
निर्याताः कमलाकरेषु विसिनीकन्दाग्रिमप्रन्थयः ।।७३ ।। ( कोई कवि मृणालतन्तु की आरम्भ की ग्रन्थियों का वर्णन करता है कि
जिनका भक्षण कर लेने से शब्द करते हुए हंसी के कूजन में मधुर कण्ठ के संयोग से घर-घर ध्वनियुक्त कोई विलक्षण ही विलास उत्पन्न हो जाता है, हथिनी के कोमल ( तुरन्त निकले हुए ) दन्ताकुरों से होड़ लगानेवाली वे मृणालतन्तु की अग्रिम ( नयी-नयी) प्रन्थियां इस समय सरोवरों में आविर्भूत हो गयी हैं ॥ ७३ ॥ ___ अत्र त्रितयेऽपि वाच्यवाचकवक्रोक्तिलक्षणे प्राधान्येन न कश्चिदपि कवेः संरम्भो विभाव्यते । किंतु प्रतिभावैचित्र्यवशेन किमपि तद्विदाह्लादकारित्वमुन्मीलितम् । __यहां पर वाच्य, वाचक और वक्रोक्ति तीनों के सम्भव होने पर भी ( उन्हें उपस्थित करने में ) कवि का प्रधान रूप से कोई संरम्भ नहीं दिखाई देता, अपितु प्रतिभा के वैचित्र्य के वशीभूत होकर कवि ने किसी अलौकिक काव्य-मर्मज्ञों की आलादकारिता का उन्मीलन किया है।