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वक्रोक्तिबीवितम् कहीं पर द्रव रूप अर्थ का कथन करनेवाले शब्द का अमूर्त ( पदार्थ) के भी वाचक ( शब्द ) के रूप में प्रयोग किया जाता है, जैसे--
( यह पद्य अपने समग्र रूप में तृतीय उन्मेष के २२वें उदाहरण में उद्धृत हुआ है, इसका पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
लोको यादृशमाह साहसधनं तं क्षत्रियापुत्रकं
स्यात्सत्येन स तादृगेव न भवेद् वार्ता विसंवादिनी। अर्थात् साहस रूप धन वाले इस क्षत्रिया के बच्चे को लोक जिस प्रकार का (पराक्रमी) कहते हैं वह भले ही वैसा क्यों न हो लोगों की बातें झूठी न हों, ( फिर भी)।
चिरकाल से देवताओं की सेना के वीरों के साथ के युद्ध को भूली हुई मेरी ये भुजायें समय की किसी एक भी बंद के लिए ( अर्थात् क्षण भर के लिए ही ) पराक्रम की गर्मी से उत्पन्न खुजलाहट को मिटाने के लिए प्याकुल हो जाये ( तो मैं उस दुष्ट का काम तमाम कर दूं) ॥ ४७ ।।
(यहाँ पर जो द्रव पदार्थ के वाचक विप्रष शब्द का प्रयोग कवि ने केवल अल्पता का समय लेकर अमूर्त पदार्थ काल के वाचक के रूप में किया है उससे इस वाक्य में अपूर्व चमत्कार आ गया है। अतः यह भी 'उपचारबक्रता' का उदाहरण हुआ । ) ( इस प्रकार उदाहरण संख्या ४६ तया ४७ ) इन दोनों में ( क्रम में ) तङ्गिणी तथा विपुष् शब्द ( उपचार ) वक्रता का वहन करते हैं (जैसा कि हम ऊपर व्याख्या कर चुके हैं )।
विशेषणवक्रत्वं नाम पदपूर्वार्धवक्रतायाः प्रकारो विद्यते--यत्र विशेषणमाहात्म्यादेव तद्विदाह्रादकारित्वलक्षणं वक्रत्वमभिव्यज्यते । यथा___ 'पनपूर्वार्द्धवक्रता' का (पञ्चम ) भेद 'विशेषवक्रता' है जिस वाक्य में विशेषण के माहात्म्य से ही काव्यज्ञों को आह्लादित करनेवाली वक्रता ( अर्थात् वैचित्र्य ) अभिन्नक्त होती है । ( वहाँ 'विशेषणवक्रता' होती है ) जैसे
दाहोऽम्माप्रमृतिपचः प्रचयवान् बाष्पः प्रणालोचितः श्वासाः प्रेजितदीप्रदीपलतिकाः पाण्डिम्नि मग्नं वपुः । किश्चान्यत्कथयामि रात्रिमखिलां त्वन्मार्गवातायने हस्तच्छत्त्रनिरुद्धचन्द्रमहसस्तस्याः स्थितिवर्तते ।। ४८ ॥