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प्रथमोन्मेषः इसी तरह युष्मदादि का विपर्यास ( अर्थात् मध्यम और उत्तम पुरुष के स्थान पर प्रथम पुरुष का प्रयोग ) क्रिया पद ( के प्रयोग ) के विना केवल प्रातिपदिक ( के प्रयोग ) में भी देखा जाता है । जैसे
अयं जनः प्रष्टुमनास्तपोधने
न चेद्रहस्यं प्रतिवक्तुमर्हसि ॥ ६८ ।। ( कुमार सम्भव के पञ्चम सर्ग में तपस्या करती हुई पार्वती से वटुवेषधारी शंकर उनकी तपस्या का कारण पूंछते हुए कहते हैं कि-) हे तप मात्र धनवाली ( पार्वती) यह ( तटस्थ ) जन ( आपसे कुछ ) पूंछने के लिये उत्सुक है यदि ( कोई ) रहस्य न हो तो ( आप उसे निस्सङ्कोच ) बता सकती हैं ॥ ६८ ॥
अत्राहं प्रष्टुकाम इति वक्तव्ये ताटस्थ्यप्रतीत्यर्थमयं जन इत्युक्तम् यथा वा
यहाँ पर ( वटुवेषधारी शंकर ने ) 'मैं पूंछने के लिए उत्सुक हूँ ( 'अहं प्रष्टुमनाः' ऐसे उत्तम पुरुष का प्रयोग करने ) के बजाय तटस्थता को घोतित करने के लिए 'यह जन' (पूंछने के लिए उत्सुक है इस प्रकार 'अयं जनः' इस प्रातिपदिक मात्र ) का प्रयोग किया है। (इस प्रकार इस वाक्य में क्रियापद से रहित केवल प्रातिपदिक के प्रयोग द्वारा वैचित्र्य-सम्पादन हो गया है ) अथवा जैसे ( दूसरा उदाहरण )--
सोऽयं दम्भधृतव्रतः इति ।। ६६ ॥ ( पद्मावती के साथ विवाह करने के लिए उद्यत वत्सराज उदयन द्वारा आग में भस्म हो गई वासवदत्ता को सम्बोधित कर कहे गये कि )-वही यह दम्भ के कारण ( एकपत्नीत्व ) व्रत को धारण करने वाला (मैं पद्मावती परिणय करने को उद्यत हो गया हैं) ।। ६६ ॥
अत्र सोऽहमिति वक्तव्ये पूर्ववद् 'प्रयम्' इति वैचित्र्यप्रतीतिः।
इस वाक्य में 'वह मैं' ( 'सोऽहम्' इस प्रकार उत्तम पुरुष ) को न कह कर वह यह' ( सोऽयं, इस प्रथम पुरुष ) को ( अपनी कृतघ्नता आदि को द्योतित करने के लिए ) प्रयुक्त कर ( एक अपूर्व चमत्कार को उत्पन्न करने वाले ) वैचित्र्य की प्रतीति ( कराई ) है।
एते च मुख्यतया वक्रताप्रकाराः कतिचिनिदर्शनार्थ प्रदर्शिताः । शिष्टाश्च सहस्रशः सम्भवन्तीति महाकविप्रवाहे सहृदयैः स्वयमेवोत्प्रेक्षा णीयाः।