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वक्रोक्तिजीवितम्
विभक्ति में प्रयोग, सहृदयों के लिये ) अत्यधिक आनन्ददायक है । ( अत; यहाँ सङ्ख्या ( वचन ) की विचित्रता से उत्पन्न 'प्रत्ययाश्रितवत्रता' हुई 1 )
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कारकवैचित्र्यविहितः यत्राचेतनस्यापि पदार्थस्य चेतनत्वाध्यारोपेण चेतनस्यैव क्रियासमावेशलक्षणं रसादिपरिपोषणार्थं कर्तृत्वादिकारकं निवण्यते । यथा
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( अब 'प्रत्ययाश्रयवक्रता' के दूसरे भेद का निरूपण करते हैं ) कारक की विचित्रता से उत्पन्न ( ' प्रत्ययाश्रयवक्रता' वहीं होती हैं ) - जहाँ चेतनता का अध्यारोप करके चेतन पदार्थ के ही समान अचेतन पदार्थ की भी क्रियाओं के समावेशरूप कर्तृता आदि कारक का रस को परिपुष्ट करने के लिये ( कवि द्वारा ) निबन्धन किया जाता है । अर्थात् जहाँ अचेतन पदार्थ में भी चेतन की ही भाँति विभिन्न क्रियाओं को करने की क्षमता दिखाता हुआ कवि उसे कर्ता आदि के रूप में कर्ता आदि कारकों के प्रयोग द्वारा व्यक्त करता है, वहाँ कारकवैचित्र्य - विहित 'प्रत्यय वक्रता' होती है ) जैसे
स्तनद्वन्द्वं मन्दं स्नपयति बलाद्वाष्पनिवहो हठादन्तः कण्ठं लुठति सरसः पचमरवः । शरण्योत्स्नापाण्डुः पतति च कपोलः करतले
न जानीमस्तस्याः क इव हि विकारव्यतिकरः ॥ ६५ ॥
( विरहव्यथा से विवश उस रमणी के ) स्तन-युग्म को बलपूर्वक आँसुओं का समूह धीरे-धीरे स्नान करा रहा है एवम् सरस पंचम स्वर हठपूर्वक उसके गले के भीतर लोट रहा है तथा शरत्कालीन चन्द्रिका के सदृश पाण्डुवर्ण कपोल उसके करतल पर गिरा जा रहा है ( यह तो उसके बाह्य अवयवों की अवस्था है जिसे कि हम देख रहे हैं, किन्तु ) नहीं जानते कि उसके ( आन्तरिक ) विकारों की अवस्था कैसी है ? ॥ ६५ ॥
अत्र बाष्पनिवहादीनामचेतनानामपि चेतनत्वाध्यारोपेण कविना कर्तृत्वमुपनिबद्धम् - यत्तस्या विवशायाः सत्यास्तेषामेवंविधो व्यवहारः, सा पुनः स्वयं न किचिदप्याचरितुं समर्थेत्यभिप्रायः ' । अन्यच्च
१. यहाँ पर डा० डे ने 'यदि तस्या' ऐसा पाठान्तर बताया है, एवं आचार्य विश्वेश्वर ने इस वाक्य में आये, 'सा पुनः स्वयं न किञ्चिदप्याचरितुं पाठ में से 'न' को हटा दिया है। इस प्रकार यदि 'न' से रहित, और आदि में 'यत्' के स्थान पर 'यदि' के पाठ को स्वीकार किया जाय तो