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प्रथमोन्मेषः
विलासों के साथ बोलने वाली । लोहित चरणों वाली तरुणी ! तुम्हीं बताओ कि अपने प्रेमी के घर तुम जब जाती हो तो तुम्हारा उच्च स्वर से शब्द करती हुई मणिमेखला वाला एवं निरन्तर बजते हुए मधुर नूपुरों वाला गमन निष्प्रयोजन ही मेरे हृदय को क्यों व्याकुल कर देता है ? ॥६-१०॥
प्रतिभादारिद्रयदन्यादतिस्वल्पसुभाषितेन कविना वर्णसावर्ण्यरम्यतामात्रमत्रोदितम्, न पुनर्वाच्यवैचित्र्यकणिका काचिदस्तीति |
इन श्लोकों में प्रतिभादारिद्रय की दीनता से अत्यल्प सुन्दर भाषण करने वाले कवि ने केवल वर्णों के सावर्ण्य की सुन्दरता को दिखाया है, न कि उसमें किसी भी प्रकार के अर्थ के वैचित्र्य का लेश भी है।
यत्किल नूतनतारुण्यरङ्गितलावण्यपटहकान्तेः कान्तायाः कामयमानेनं केनचिदेतदुच्यते-यदि त्वं तरुणि रमणमन्दिरं ब्रजसि तत्कि त्वदीयं परिसरणं रणरणकमकारणं मम करोतीत्यतिग्राम्येयमुक्तिः। किंच न अकारणम् , यतस्तस्यास्तदनादरेण गमनेन तद्नुरक्तान्तःकरणस्य विरहविधुरताशकाकातरता कारणं रणरणकस्य । यदि वा परिसरणस्य मया किमपराद्धमित्यकारणतासमर्पकम् , एतदप्यतिप्राम्यतरम् | संबोधनानि च बहूनि मुनिप्रणीतस्तोत्रामन्त्रणकल्पानि न कांचिदपि तद्विदामाह्वादकारितां पुष्णन्तीति यत्किंचिदेतत् ।
जो कि नयी तारुण्यावस्था से तरङ्गित लावण्य के कारण सुन्दर कांतिवाली कान्ता की कामना करने वाला कोई ( उस कान्ता से ) कहता है, हे तरुणि! यदि तुम अपने पति गृह जाती हो, तो तुम्हारा गमन मेरे हृदय को अकारण ही व्याकुल कर देता, यह कथन अत्यधिक ग्राम्य है। और भी केवल अकारण ही नहीं। क्योंकि उस कान्ता के उस ( कामुक ) के प्रति अनादरपूर्ण गमन से उस ( कान्ता ) में अनुरक्त अन्तःकरण वाले (उसकामुक ) की (उस कान्ता के) विरह की विधुरता की शङ्का से जन्य कातरता हृदन की व्याकुलता का कारण है । अथवा ( तुम्हारे ) गमन का मैंने क्या अपराध किया है (जो मुझे कष्ट दे रहा है ) यदि यह अकारणता को. सिद्ध करने वाला हो तो यह और भी अधिक ग्राम्य है। तथा बहुत से सम्बोधन मुनियों द्वारा विरचित स्तोत्रों के सम्बोधनों के सदृश किसी भी प्रकार की उस ( काव्यतत्त्व) को जानने वालों की आलादकारिता का पोषण नहीं करते, इसलिए यह व्यर्थ है।