________________
वक्रोक्तिजीवितम् अवियुक्त (प्रतिपादित कर) इस प्रकार किस अपूर्व ( बात ) का विधान कर रहे हैं अर्थात् किसी नई बात का प्रतिपादन नहीं कर रहे हैं, ( अपितु) सिद्ध की ही साधना ( पिष्टपेषण ) कर रहे हैं । तो इस प्रकार शब्द और अर्थ का साहित्य ( अवियुक्तता तो) स्वभावतः ही सिद्ध है। अतः कोन सहृदय पुनः (पूर्वप्रतिपादित ) उस (साहित्य) का कथनकर अपने को निरर्थक ही कष्ट देना चाहेगा । ( अतः आपका प्रयास व्यर्थ है ) इसी बात का उत्तर देते हैं-यह बात सत्य है (कि शब्द और अर्थ अवियुक्त होते हैं) किन्तु ( शब्द और अर्थ के ) वाच्य-वाचक रूप नित्य सम्बन्ध का कारण (ही) वस्तुतः 'साहित्य' नहीं कहा जाता। क्योंकि इस ( वाच्य वाचक के नित्य सम्बन्ध के कारण ) के ही 'साहित्य' शब्द द्वारा कथन किये जाने पर कठिन कल्पना द्वारा विरचित गाङ्कुटादि वाक्य तथा (एक दूसरे से) असम्बद्ध गाड़ी आदि हांकने वाले (मूों) के वाक्य सभी साहित्य शब्द द्वारा कहे जाने लगेंगे। और इस प्रकार पद ( शास्त्र व्याकरण) वाक्य ( शास्त्र मीमांसा ) एवं प्रमाण (शास्त्र न्याय ) से भिन्न कोई दूसरा तत्त्व साहित्य (शास्त्र) होता है इस प्रकार का विभाजन भी सम्भव नहीं होगा। (क्योंकि तब तो सभी साहित्य ही हो जायेंगे ) ।
ननु च पदादिव्यतिरिक्तं यत्किमपि साहित्यं नाम तदपि सुप्र. सिद्धमेव, पुनस्तदभिधानेऽपि कथं न पौनरुक्त्यप्रसङ्गः ? अतएवंतदुच्यते-यदिदं साहित्यं नाम तदेतावति निःसीमनि समयाध्वनि साहित्यशब्दमात्रेणैव प्रसिद्धम् । न पुनरेतस्य कविकर्मकौशलकाष्ठाघिरूढिरमणीयस्याद्यापि' कश्चिदपि विपश्चिदयमस्य परमार्थ इति मनाममात्रमपि विचारपदवीमवतीर्णः । तदद्य सरस्वतीहृदयारविन्दमकरन्दविन्दुसन्दोहसुन्दराणां सत्कविवचसामन्तरामोदमनोहरत्वेन परिस्फुरदेतत् सहृदयषट्चरणगोचरतां नीयते ।
(इस पर पूर्वपक्षी फिर प्रश्न करता है कि ) पदादि ( अर्थात् व्याकरणादि शास्त्रों) से भिन्न जो कुछ भी साहित्य ( कहा जाता ) है वह भी भलीभांति प्रसिद्ध है। अतः फिर से उसीका कथन करने पर भी पुनरुक्ति क्यों नहीं होगी ( अर्थात् उसका कथन पिष्टपेषण ही होगा? ) इसीलिए ( इस बात का उत्तर ) यह आगे कहते हैं जो यह साहित्य है (जिसका हम विवेचन करने जा रहे हैं ), अभी तक ( हमारे विवेचन से पूर्व ) अनन्त काल से चली आती हुई पद्धति में केवल 'साहित्य' शब्द ( नाम ) से ही प्रसिद्ध पा (अर्थात् हमसे पूर्व के सभी आचार्य इसे केवल 'साहित्य' 'साहित्य'