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प्रथमोन्मेषः
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यह बात ठीक नहीं ( क्योंकि
दूसरे अर्थ के साथ तथा अर्थ का दूसरे शब्द के साथ साहित्य क्यों नहीं स्वीकार करते ? तो इसका उत्तर देते हैं कि जैसा हमने शब्द का शब्द के साथ तथा अर्थ का अर्थ के साथ साहित्य का ) क्रम ( बताया है उस ) के ( इस प्रकार के शब्द का अर्थ के साथ और अर्थ का शब्द के साथ साहित्य हो ऐसे ) परिवर्तन में किसी भी प्रयोजन का अभाव होने से तथा इस विपरीत क्रम के कथन की ) सम्यक् सङ्गति न होने से ( ऐसा क्रम परिवर्तन ठीक नहीं ) । अतः इन शब्द और अर्थ दोनों का यथानुरूप सहृदयों के हृदयों को आह्लादित करने वाला अपनी शोभा की सामग्री - समूह जिसमें परस्पर ( न्यूनाधिक्य से रहित ) स्पर्धा द्वारा परिस्फुरित होता है वह कोई अलोकिक ही वाक्य - विन्यास की सम्पत्ति साहित्य कहलाने की भागी होती है ।
मार्गानुगुण्यसुभगो माधुर्यादिगुणोदयः । अलङ्करणविन्यासो वक्रतातिशयान्वितः ॥ ३४ ॥
( जहाँ सुकुमारादि काव्य के ) मार्गों के अनुरूप होने के कारण रमणीय, माधुर्यं ( प्रसाद ) आदि ( काव्य मार्ग ) के गुणों से अन्वित, ( वर्ण्यमान ६ प्रकार की ) वक्रताओं के अतिशय से संयुक्त, अलङ्कारों का विशेष ढंग से ( चमत्कारपूर्ण ) रचना ( की जाती है ) || ३४ ||
वृन्त्यौचित्यमनोहारि रसानां परिपोषणम् ।
स्पर्धया विद्यते यत्र यथास्वमुभयोरपि ॥ ३४ ॥
( ओर ) जहाँ ( शब्द और अर्थ ) दोंनों की यथोचित ( न्यूनाधिक्य से रहित ) स्पर्धा के कारण ( कैशिकी, भारती आदि ) वृत्तियों के औचित्य से रमणीय ( चित्ताकर्षक, शृङ्गारादि ) रसों का सम्यक् पोषण, विद्यमान रहता है ।। ३५ ।।
काप्यवस्थितिस्तद्विदानन्द स्पन्द सुन्दरा | पदादिवाकपरिस्पन्दसारः साहित्यमुच्यते ।। ६६ ।।
( ऐसी, ) काव्यतत्वज्ञ ( सहृदयों ) को आनन्दित करनेवाले ( अपने ) स्वभाव से रमणीय वह कोई ( अलौकिक शब्द और अर्थ की परस्पर साम्य सुन्दर ) स्थिति, पद ( वाक्य, प्रमाण ) आदि वाणी के विलासों का सारभूत (तत्व) : साहित्य' कहलाता है ।। ३६ ॥
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