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प्रथमोन्मेषः
२५ अतः शब्द और अर्थ दोनों अच्छी तरह से मिलकर (ही) काव्य होते हैं, यह निश्चित हुआ। इस प्रकार ( शब्द और अर्थ ) दोनों में काव्यत्व होता है ऐसा निश्चित हो जाने पर कहों ( उन दोनों में से ) एक की थोड़ी सी न्यूनता होने पर काव्य-व्यवहार प्रवर्तित होने लगे ( जो कि अनुचित एवं अनभिप्रेत है ) इसलिए ( कारिका में ) कहा-'सहिताविति' । सहितो अर्थात् सहित के भाव साहित्य से अवस्थित (शब्द और अर्थ काव्य होते हैं)।
ननु च वाच्यवाचकसंबन्धस्य विद्यमानत्वादेतयोर्न कथंचिदपि साहित्यविरहः, सत्यमेतत् । किन्तु विशिष्टमेवेह साहित्यमभिप्रेतम् । कीदृशम् ?-चक्रताविचित्रगुणालंकारसंपदां परस्परस्पर्धाधिरोहः । तेन
(इस पर यदि कोई प्रश्न करे कि ) वाच्यवाचक सम्बन्ध के विद्यमान होने से इन दोनों ( शब्द और अर्थ ) में साहित्य की अविद्यमानता किसी प्रकार सम्भव ही नहीं है ( अर्थात् इन दोनों में सदैव सहभाव तो विद्यमान ही रहता है अतः 'सहितौ' इस विशेषण के प्रयोग की कोई आवश्यकता नहीं । तो इसका उत्तर देते हैं कि ) ठीक है ( शब्द और अर्थ में सहभाव (साहित्य) सदेव विद्यमान रहता है) किन्तु यहाँ पर (वह प्रसिद्ध साहित्य नहीं ) अपितु ( उससे ) विशिष्ट ही साहित्य वाञ्छनीय है । ( वह विशिष्ट साहित्य ) किस प्रकार का है ? (जहाँ आगे कही जाने वाली छः प्रकार की) वक्रताओं से विचित्र गुणों एवं अलङ्कारों की सम्पत्ति की परस्पर स्पर्धा की पराकाष्ठा होती है ( वैसा साहित्य अभिप्रेत है । ) अत:
समसर्वगुणौ सन्तौ सुहृदाविव सातौ।।
परस्परस्य शोभायै शब्दार्थो भवतो यथा ॥ १८ ॥ ( मुझे वह साहित्य अभिप्रेत है जहाँ ) समान समस्त गुणों से सम्पन्न दो मित्रों की भांति ( माधुर्यादि ) समस्त गुशों से समानरूप से युक्त शब्द और अर्थ एक दूसरे की शोभा के लिये संगत हो (आपस में अच्छी तरह से मिल) पाते हैं । ( जैसे ) ॥ १८ ॥
ततोऽरुणपरिस्पन्दमन्दीकृतवपुः शशी ।
दधे कामपरिक्षामकामिनीगण्डपाण्डुताम् ॥ १६ ॥ तदनन्तर ( सबेरे सूर्य के सारथि ) अरुण के सञ्चरण ( अर्थात् सूर्योदय) के कारण मन्दप्रभा वाले चन्द्रमा ने काम से परिक्षीण हई कामिनी के गण्डस्थलों की जैसी पाण्डता (पीलेपन) को धारण किया ॥१६॥