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वक्रोक्तिजीवितम्
से हीन होने के कारण ( शास्त्र ज्ञान के अभाव के कारण ) स्वच्छन्द होकर समुचित समस्त व्यवहारों का विनाश करने के लिए समर्थ होते हैं, अतः . ( समस्त उचित व्यवहारों के विनाश को रोकने के लिए एवं इस प्रकार राजपुत्रों की कार्यों में औचित्ययुक्त प्रवृत्ति एवं निवृत्ति कराने के लिए) उनकी ( शास्त्रविषयक ) व्युत्पत्ति के लिए कवि लोग अतीत के श्रेष्ठ-चरित्र वाले राजाओं के चरित्र का उनके निदर्शन के लिए ( काव्यरूप में ) वर्णन करते हैं। अतः इस प्रकार से काव्यबन्ध का शास्त्र से अतिरिक्त प्रकृष्ट गुणवाला प्रयोजन तो निश्चित ही है ।। ३ ॥
मुख्यं पुरुषार्थसिद्धिलक्षणं प्रयोजनमास्तां तावत् , अन्यदपि लोकयात्राप्रवर्तननिमित्तं भृत्यसुहृत्स्वाम्यादिसमावर्जनमनेन विना सम्यक् न सम्भवतीत्याह
व्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्य व्यवहारिभिः ।
सत्काव्याधिगमादेव नूतनौचित्यमाप्यते ॥ ४ ॥ (उपर्युक्त कारिका में ग्रन्थकार ने काव्यबन्ध का प्रयोजन चतुर्वर्ग की प्राप्ति को ही बताया है लेकिन उसके अन्य भी लोक-व्यवहारविषयक प्रयोजनों को बताने के लिए कहते हैं-)
पहले पुरुषार्थ की सिद्धि ( अर्थात् धर्म आदि की प्राप्ति ) रूप मुख्य प्रयोजन को रहने दें, अन्य भी लोकयात्रा की प्रवृत्ति के कारणभूत सेवक, मित्र एवं स्वामी आदि का भलीभांति आकर्षण इसके ( बाव्यज्ञान के) बिना नहीं सम्भव है, अतः कहा है
लोक व्यवहार में ( नित्य ) प्रवृत्त होने वाले लोग नवीन औचित्य से युक्त लोकाचार के व्यापार के सौन्दर्य को श्रेष्ठ काव्यों के परिज्ञान से ही प्राप्त करते हैं ॥ ४॥ ___ व्यवहारो लोकवृत्तं तस्य परिस्पन्दो व्यापारः क्रियाक्रमलक्षणस्तस्य सौन्दर्य रमणीयकं तद्व्यवहारिभिर्व्यवहर्तृभिः सत्काव्याधिगमादेव कमनीयकाव्यपरिज्ञानादेव नान्यस्माद् आप्यते लभ्यत इत्यर्थः। कीदृशं तत्सौन्दर्यम्-नूतनौचित्यम् नूतनमभिनवमलौकिकमौचित्यमुचितभावो यस्य । तदिदमुक्तं भवति-महतां हि राजादीनां व्यवहारे वर्ण्यमाने तदङ्गभूता सर्वे मुख्यामात्यप्रभृतयः समुचितप्रातिस्विक कर्तव्यव्यवहारनिपुणतया निबध्यमानाः सकलव्यवहारिवृत्तोपदेशतामा.