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प्रथमोन्मेषः
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अतः ( खिलौने के साथ काव्यादि की समानता को दूर करने के लिये ) कहा धर्मादि के सम्पादन का उपाय ( काव्यबन्ध होता है ) | ( अर्थात् काव्यबन्ध ) धर्मादि अर्थात् उपायों के द्वारा प्राप्त होने वाले ( धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप ) चतुर्वर्ग के साधन अर्थात् सम्पादन में उस धर्मादि ) की प्राप्तिका निमित्त होता है ।
तथापि तथाविधपुरुषार्थोपदेशपरैरपरैरपि शास्त्रैः किमपराद्धमित्यभिधीयते - सुकुमारक्रमोदितः । सुकुमारः सुन्दरः सहृदयहृदयहारी क्रमः परिपाटीविन्यासस्तेनोदितः कथितः सन् । अभिजातानामाह्लादकत्वे सति प्रवर्तकत्वात्काव्यबन्धो धर्मादिप्राप्त्युपायतां प्रतिपद्यते । शास्त्रेषु पुनः कठोरक्रमाभिहितत्वाद् धर्माद्यपदेशो दुरवगाहः । तथाविवे विषये विद्यमानोऽप्यकिञ्चित्कर एव ।
फिर भी उस प्रकार ( उपायों द्वारा प्राप्तव्य ) पुरुषार्थ का उपदेश करने वाले दूसरे भी शास्त्रों द्वारा क्या अपराध किया गया है ( जो आप काव्यबन्ध को ही धर्मादिसाधनोपाय बताते हैं दूसरों को नहीं ) अतः कहते हैं, सुकुमार क्रम से कहा गया ( काव्यबन्ध धर्मादि के सम्पादन का उपाय होता है । सुकुमार अर्थात् सुन्दर सहृदयों के हृदयों का हरण करने वाला क्रम अर्थात् परिपाटी विन्यास ( विशेष प्रकार की रचनाशैली ) उसके द्वारा उदित अर्थात् कहा गया ( काव्यबन्ध धर्मादि का साधन है ) । अभिजात राजपुत्रादिकों का आह्लादकत्व होने से काव्यबन्ध धर्मादि ( पुरुषार्थ-चतुष्टय ) की प्राप्ति की उपायता को प्राप्त होता है ( अर्थात् धर्मादि की प्राप्ति का उपाय बन जाता हैं ।) फिर शास्त्रों में ( उनके ) कठोर क्रम से कहे जाने के कारण ( सुकुमार मति एवं क्लेभभीरु राजपुत्रादिकों के लिए ) धर्मादि का उपदेश बड़ी ही कठिनता से प्राप्त होने वाला होता है । अतः ( शास्त्रादिक ) उस प्रकार ( धर्मादि की सिद्धि के विषय में विद्यमान होने पर भी बेकार ही है :
राजपुत्राः खलु समासादितविभवाः समस्तजगतीव्यवस्थाकारितां प्रतिपद्यमानाः श्लाघ्यो पायोपदेशशून्यतया स्वतन्त्राः सन्तः समुचित - सकलव्यवहारोच्छेदं प्रवर्तयितुं प्रभवन्तीत्येतदर्थमेतद्व्युत्पत्तये व्यतीतसच्चरितराजचरितं तनिदर्शनाय निबध्नन्ति कवयः । तदेवं शास्त्रातिरिक्तं प्रगुणमस्त्येव प्रयोजनं काव्यबन्धस्य || ३ ||
राजपुत्र लोग ऐश्वर्य को प्राप्त कर समस्त पृथ्वी की व्यवस्था करते हुए श्रेष्ठ ( राजविषयक एवं लोक व्यवहारसम्बन्धी ) उपायों के उपदेश