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वक्रोक्तिजीवितम् एवमलंकारस्यास्य प्रयोजनमस्तीति स्थापितेऽपि तदलकार्यस्य काव्यस्य प्रयोजनं विना यदपि सदपार्थकमित्याह
धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः ।
काव्यबन्धोऽभिजातानां हृदयाह्लादकारक. ॥३॥ इस तरह अलङ्कारग्रन्थ का प्रयोजन ( लोकोत्तरचमत्कारकारिवैचित्र्य की सिद्धि ) है ऐसा सिद्ध हो जाने पर भी अलङ्कार के द्वारा सुशोभित किए जाने वाले काव्य के प्रयोलन के बिना वह प्रयोजनमूल का भी बेकार ही है । इस आशय से ग्रन्थकार कहते हैं कि
सुकुमार क्रम ( अर्थात् सहृदयहृदयहारी परिपाटी ) से कहा गया काव्य बन्ध ! अर्थात् महाकाव्यादि ) धर्मादि ( अर्थात् धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप चतुर्वर्ग) के सम्पादन का उपाय ( तथा ) अभिजातों ( कुलीन-सुकुमार. मति राजपुत्रादिकों ) के हृदय में आह्लाद ( आनन्द ) को उत्पन्न करने वाला होता है ॥ ३ ॥
हृदयाह्लादकारकश्चित्तानन्दजनकः काव्यबन्धः सर्गबन्धादिर्भवतीति सम्बन्धः । कस्येत्याकाक्षायामाह-अभिजातानाम् । अभिजाताः खलु राजपुत्रादयो धर्माद्यपेयार्थिनो विजिगीषवः क्लेशभीरवश्च, सुकुमाराशयत्वात्तेषाम् तथा सत्यपि तदाह्लादकत्वे काव्यबन्धस्य
क्रीडनकादिप्रख्यता प्राप्नोतीत्याह-धर्मादिसाधनोपायः । धर्मादे0 रुपेयभूतस्य चतुर्वर्गस्य साधने संपादने तदुपदेशरूपत्वादुपायस्तत्प्राप्तिनिमित्तम् ।
हृदयाह्लादकारक अर्थ चित्त में आनन्द को उत्पन्न करने वाला काव्यबन्ध अर्थात् सर्गबन्धादि ( महाकाव्यादि ) होता है यह ( अर्थात् 'काव्यबन्धः' का 'भवति' इस क्रिया से ) सम्बन्ध है। किसका ( चित्तानन्दजनक होता है ) इस आकांक्षा में कहा, अभिजातों का। ( हृदयाह्लादकारक होता है )। अभिजात राजपुत्रादि उपायों द्वारा प्राप्य धर्मादि (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप पुरुषार्थ-चतुष्टय ) के प्रार्थी विजय की इच्छावाले एवं क्लेश से डरने वाले होते हैं (क्योंकि उनका स्वभाव सुकुमार होता है।) काव्यबन्ध के उस प्रकार उन ( राजतुत्रादिकों ) का आह्लादक होने पर भी ( उसे ) खिलोना आदि का सादृश्य प्राप्त होता है ( अर्थात् यदि काव्यबन्ध केवल राजपुत्रादिकों का आह्लादक ही होता है, उसका और कोई प्रयोजन नहीं, तो वह तो खिलौने के ही सदृश हुआ क्यों कि आह्लादकत्व तो उसमें भी होता है)