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प्रथमोन्मेषः पद्यन्ते । ततः सर्वः कचित्कमनीयकाव्ये कृतश्रमः समासादितव्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्यातिशयः श्लाघनीयफलभाग भवतीति ।
व्यवहार अर्थात् लोकाचार उराका परिस्पन्द अर्थात् कार्य-परम्परा रूप व्यापार, उसका सौन्दर्य अर्थात् रमणीयता वह ( लोकाचार के व्यापार का सौन्दर्य ) व्यवहारी अर्थात् ( नित्यप्रति ) लोक व्यवहार में प्रवृत्त होने वाले ( पुरुषों के ) द्वारा, सत्काव्य के अधिगम से अर्थात कमनीय काव्य के परिज्ञान से ही, अन्य किसी ( साधन ) से नहीं आप्त अर्थात् प्राप्त होता है, ऐसा अर्थ हुआ। वह सौन्दर्य किस प्रकार का है नूतन औचित्ययुक्त । नुतन अर्थात् अभिनव लौकिक औचित्य अर्थात् उचितभाव है जिसका ( ऐसा सौन्दर्य । इस प्रकार यह बताया गया कि, बड़े-बड़े राजाओं के व्यवहार के ( काव्य में ) वर्णन किए जाने पर उन ( राजादिकों ) के अङ्गभूत सभी प्रधान अमात्य ( मंत्री ) आदि सम्यक् औचित्यपूर्ण अपने-अपने कर्तव्यों एवं व्यवहारों में निपुणता के साथ ( काव्य में ) वर्णित होकर समस्त व्यवहार में प्रवृत्त होने वाले पुरुषों के आचार के उपदेश करने वाले हो जाते हैं। अर्थात् लौकिक पुरुषों को किस ढंग से व्यवहार करना चाहिए यह शिक्षा उन्हें काव्य के वणित राजा एवम् उनके अमात्य आदि के व्यवहारों से मिलती है। तदनन्तर सभी कोई कमनीय काव्य में परिश्रम करके लोकव्यवहार की कार्यपरम्परा रूप व्यापार के सौन्दर्यातिशय को प्राप्त कर श्रेष्ठ फल का भागी होता है ।
योऽसौ चतुर्वर्गलक्षणः पुरुषार्थस्तदुपार्जनविषयव्युत्पत्तिकारणतया काव्यस्य पारंपर्येण प्रयोजनमित्याम्नातः, सोऽपि समयान्तरभावितया तदुपभोगस्य तत्फलभूताहादकारित्वेन तत्कालमेव पर्यवस्यति । अतस्तदतिरिक्तं किमपि सहृदयहृदयसंवादसुभगं तदात्वरमणीयं प्रयोजनान्तरमभिधातुमाह
काव्य के उस ( चतुर्वर्ग ) की प्राप्ति के विषय में व्युत्पत्ति का साधन होने के कारण जो यह ( तृतीय कारिका में धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष) चतुर्वर्ग रूप पुरुषार्थ-परम्परा से ( काव्य का ) प्रयोजन स्वीकार किया गया है वह भी उसके उपभोग के समयान्तर ( अर्थात् काव्य के अध्ययन काल में तुरन्त ही नहीं अपितु कुछ समय बाद ) में होने वाला होने के कारण उस ( उपभोग ) के फलस्वरूप आह्लाद का उत्पादक होने से उस ( समयान्तर रूप ) काल में ही पर्यवसित होता है, ( अर्थात् काव्य के अध्ययन के फलभूत चतुर्वर्ग का उपभोग अध्ययन काल में न होकर कालान्तर में होता है अतः