Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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हुआ है। तात्पर्य यह है कि हम आवश्यकनियुक्ति को यदि ज्योतिर्विद वराहमिहिर के भ्राता भद्रबाहु की कृति मानते हैं तो वे विक्रम की छठी शताब्दी में हुए हैं। उन्होंने इसका प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि 'छेदसुत्त' शब्द का प्रयोग 'मूलसुत्त' से पहले हुआ है।
अमुक आगमों को 'छेदसूत्र' यह अभिधा क्यों दी गई? इस प्रश्न का उत्तर प्राचीन ग्रन्थों में सीधा और स्पष्ट प्राप्त नहीं है। हाँ यह स्पष्ट है कि जिन सूत्रों को छेदसुत्त' कहा गया है वे प्रायश्चित्तसूत्र हैं।
स्थानाङ्ग में श्रमणों के लिए पांच चारित्रों का उल्लेख हैं
(१) सामायिक, (२) छेदोपस्थापनीय, (३) परिहारविशुद्धि, (४) सूक्ष्मसंपराय, (५) यथाख्यात। इनमें से वर्तमान में तीन अन्तिम चारित्र विच्छिन्न हो गये हैं। सामायिक चारित्र स्वल्पकालीन छेदोपस्थापनिक चारित्र ही जीवन पर्यन्त रहता है। प्रायश्चित्त का सम्बन्ध भी इसी चारित्र से है। संभवतः इसी चारित्र को लक्ष्य में रखकर प्रायश्चित्तसूत्रों को छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो।
मलयगिरि की आवश्यकवृत्ति में छेदसूत्रों के लिए पद-विभाग, समाचारी शब्द का प्रयोग हुआ है। पद-विभाग और छेद ये दोनों शब्द रखे गये हों। क्योंकि छेदसूत्रों में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध नहीं है। सभी सूत्र स्वतंत्र हैं। उनकी व्याख्या भी छेद-दृष्टि से या विभाग दृष्टि से की जाती है।
___ दशाश्रुतस्कन्ध, निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प ये सूत्र नौवें प्रत्याख्यान पूर्व से उद्धृत किये गये हैं, उससे छिन्न अर्थात् पृथक् करने से उन्हें छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो, यह भी सम्भव है।
छेदसूत्रों को उत्तम श्रुत माना गया है। भाष्यकार भी इस कथन का समर्थन करते हैं। चूर्णिकार जिनदास महत्तर स्वयं यह प्रश्न उपस्थित करते हैं कि छेदसूत्र उत्तम क्यों हैं ? फिर स्वयं ही उसका समाधान देते हैं कि छेदसूत्र में प्रायश्चित्तविधि का निरूपण है, उससे चारित्र की विशुद्धि होती है, एतदर्थ यह श्रुत उत्तम माना गया है। श्रमण-जीवन की साधना का सर्वाङ्गीण विवेचन छेदसूत्रों में ही उपलब्ध होता है। साधक की क्या मर्यादा है, उसका क्या कर्तव्य है, इत्यादि प्रश्नों पर उनमें चिन्तन किया गया है। जीवन में से असंयम के अंश को काटकर पृथक् करना, साधना में से दोषजन्य मलिनता को निकालकर साफ करना, भूलों से बचने के लिय पूर्ण सावधान रहना, भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त ग्रहण कर उसका परिमार्जन करना, यह सब छेदसूत्रों का कार्य है।
१. जैनागमधर और प्राकृत वाङ्मय-लेखक पुण्यविजयजी, -मुनि हजारीमल स्मृतिग्रन्थ, १७१८ २. (क) स्थानांगसूत्र ५, उद्देशक २, सूत्र ४२८
(ख) विशेषावश्यकभाष्य गा. १२६०-१२७० ३. पदविभाग, समाचारी छेदसूत्राणि।
-आवश्यकनियुक्ति ६६५, मलयगिरिवृत्ति ४. कतरं सुत्तं? दसाउकप्पो ववहारो य। कतरातो उद्धृतं? उच्यते पच्चक्खाण-पुवाओ।
-दशाश्रुतस्कंधचूर्णि, पत्र २ ५. निशीथ १९ /१७ ६. छेयसुयमुत्तमसुयं।
-निशीथभाष्य, ६१४८ ७. छेयसुयं कम्हा उत्तमसुत्तं? भण्णामि-जम्हा एत्थं सपायच्छित्तो विधी भण्ति, जम्हा एतेणच्चरणविशुद्ध करेति, तम्हा तं उत्तमसुत्तं।
-निशीथभाष्य ६१८४ की चूर्णि
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