Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पर्याप्तक होती हैं। इसमें 'संजद' शब्द को सम्पादकों ने टिप्पण में दिया है, जिसका सारांश यह है कि मनुष्य-स्त्री को 'संयत' गुणस्थान न हो सकता है और संयत गुणस्थान होने पर स्त्री मोक्ष में जा सकती है। प्रस्तुत प्रश्न को लेकर दिगम्बर समाज में प्रबल विरोध का वातावरण समुत्पन्न हुआ तब ग्रन्थ के सम्पादक पं. हीरष्लालजी जैन आदि ने पुनः उसका स्पष्टीकरण 'षट्खण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना' में किया किन्तु जब विज्ञों ने मूडबिद्री (कर्णाटक) में षट्खण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी 'संजद' शब्द मिला है।
वट्टकेरस्वामी विरचित मूलाचार में आर्यिकाओं के आचार का विश्लेषण करते हुए कहा है कि जो साधु अथवा आर्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं वे जगत् में पूजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं। इसमें भी आर्यिकाओं के मोक्ष में जाने का उल्लेख है।
किन्तु बाद में टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में स्त्री निर्वाण का निषेध किया है। आचार के जितने भी नियम हैं उनमें महत्वपूर्ण नियम उद्दिष्ट त्याग का है, जिसका दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से महत्त्व रहा है।
श्वेताम्बर आगम-साहित्य में और उसके व्याख्या साहित्य में आचार सम्बन्धी अपवाद मार्ग का विशेष वर्णन मिलता है किन्तु दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में अपवाद का वर्णन नहीं है, पर गहराई से चिन्तन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा में भी अपवाद रहे होंगे, यदि प्रारम्भ से ही अपवाद नहीं होते तो अंगबाह्य सूची में निशीथ का नाम कैसे आता? श्वेताम्बर परम्परा में अपवादों को सूत्रबद्ध करके भी उसका अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति के लिए निषिद्ध कर दिया गया। विशेष योग्यता वाला श्रमण ही उसके पढ़ने का अधिकारी माना गया। श्वेताम्बर श्रमणों की संख्या प्रारम्भ से ही अत्यधिक रही जिससे समाज की सुव्यवस्था हेतु छेदसूत्रों का निर्माण हुआ। छेदसूत्रों में श्रमणाचार के निगूढ़ रहस्य और सूक्ष्म क्रिया-कलाप को समझाया गया है। श्रमण के जीवन में अनेकानेक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग समुपस्थित होते हैं, ऐसी विषम परिस्थिति में किस प्रकार निर्णय लेना चाहिए यह बात छेदसूत्रों में बताई गई है। आचार सम्बन्धी जैसा नियम
और उपनियमों का वर्णन जैन परम्परा में छेदसूत्रों में उपलब्ध होता है वैसा ही वर्णन बौद्ध परम्परा में विनयपिटक में मिलता है और वैदिक परम्परा में कल्पसूत्र, श्रोतसूत्र और गृहसूत्रों में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में भी छेदसूत्र बने थे पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं।
___छेदसूत्र का नामोल्लेख नन्दीसूत्र में नहीं हुआ है। 'छेदसूत्र' का सबसे प्रथम प्रयोग आवश्यक नियुक्ति में हुआ है। उसके पश्चात् विशेषावश्यकभाष्य और निशीथभाष्य आदि में भी यह शब्द व्यवहृत १. सम्मामिच्छाइट्टि असंजदसम्माइट्टि संजदासंजद (अत्र संजद इति पाठशेषः प्रतिभाति) ट्राणे णियमा पज्जत्तियाओ।
-षट्खण्डागम, भाग १ सूत्र ९३ पृ. ३३२, प्रका.-सेठ लक्ष्मीचंद शिताबराय जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय
अमरावती (बरार), सन् १९३९ २. एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। ते जगपुज्जं कित्तिं सुहं च लभ्रूण सिझंति॥
-मूलाचार ४/१९६, पृ. १६८ ३. जं च महाकप्पसुयं, जाणि असेसाणि छेअसुत्ताणि। चरणकरणाणुओगो त्ति कालियत्थे उवगयाणि ॥
-आवश्यकनियुक्ति ७७७ ४. वही
-विशेषावश्यकभाष्य २२६५ ५. (क) छेदसुत्तणिसीहादी, अत्थो य गतो य छेदसुत्तादी। मंतनिमित्तोसहिपाहूडे, य गाहेंति अण्णात्थ ॥
-निशीथभाष्य ५९४७ (ख) केनोनिकल लिटरेचर पृ. ३६ भी देखिए
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