Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्वार्थसूत्रे ते खलु संसारिणो जीवाः पुनर्द्विविधाः तद्यथा पर्याप्ताः अपर्याप्ता श्चेति । तत्र-पर्याप्ति स्तावत् षविधा वर्त्तते, आहार-शरीरेद्रियश्वासोच्छवासभाषामनःपर्याप्तिभेदात् । तत्र तैजसकार्मणशरीरभाजः आत्मनो विवक्षितक्रियापरिनिष्पत्तिः पर्याप्तिः आत्मनः खलु कर्तुः करणविशेषपुद्गलरूपाऽपर्याप्तिः येन करणविशेषेणाऽऽत्मन आहारादिग्रहणसामर्थ्यं निष्पद्यते, तच्च करणं यैः पुद्गलै निर्वयेते ते खलु पुद्गला आत्मना गृहीतास्तथाविधपरिणतिभाजः पर्याप्तिशब्देनोच्यन्ते इति भावः ।
तत्रा-ऽऽहारग्रहणसमर्थकरणपरिनिष्पत्तिः आहारपर्याप्तिः-शरीरकरणनिष्पत्तिः शरीरपप्तिः । एवम्-इन्द्रियादिपर्याप्तिरपि बोध्या, तथाविधपर्याप्तियुक्ताः जीवाः पर्याप्ता उच्यन्ते । आहारादिपर्याप्तिरहितास्तु-अपर्याप्ता-उच्यन्ते-॥ सूत्र ७॥
नियुक्तिः--पूर्वसूत्रे जीवानां सूक्ष्म-बादरभेदेन द्वैविध्यं प्रतिपादयितुमाह-“पुणो दुविहा” इत्यादि । ते खलु जीवाः पुनर्द्विविधाः पर्याप्तकाः-अपर्याप्तकाश्च-तत्र पर्याप्तिः शक्तिः षड्विधा वर्त्तते । आहार-शरीरे–न्द्रिय-श्वासो-च्छासभाषामनःपर्याप्तिभेदात् । तथाचकेचन जीवाः अहारादिपर्याप्ता भवन्ति केचन–पुनराहादिपर्याप्तिरहिता भवन्ति। तथा चयावत्कालं पूर्णा पर्याप्ति न बध्नन्ति तावत्कालमपर्याप्तकाः अतएव-जीवाः पर्याप्तकाः अपर्याप्तकाश्च व्यपदिश्यन्ते इति भावः । सूत्र ७॥
पर्याप्ति के छह भेद हैं—(१) आहारपर्याप्ति ( २ ) शरीरपर्याप्ति ( ३ ) इन्द्रियपर्याप्ति ( ४ ) श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति ( ५ ) भाषापर्याप्ति (६) मन;पर्याप्ति । तैजस और कार्मण शरीर वाले आत्मा की किसी क्रिया की पूर्ति होना पर्याप्ति है । कर्ता आत्मा है।
जिस करण के द्वारा आत्मा में आहार आदि के ग्रहण की शक्ति उत्पन्न होती है, वह करण जिव पुद्गलों से उत्पन्न होता है, पुद्गल आत्मा के द्वारा गृहीत होकर अमुक प्रकार के परिणमन करते हैं । वही पर्याप्ति कहलाती हैं । आहार को ग्रहण करने में समर्थ करण की निष्पत्ति हो जाना आहारपर्याप्ति है । शरीर रूप करण की निष्पत्ति होना शरीर पर्याप्ति है। इसी प्रकार इन्द्रियपर्याप्ति आदि भी समझ लेना चाहिए । जो जीव इस प्रकार की पर्याप्तियों से युक्त होते हैं वे पर्याप्त कहलाते हैं। जो जीव आहार आदि पर्याप्तियों से रहित होते हैं, उन्हें अपर्याप्त कहते हैं ॥७॥
तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में सूक्ष्म और बादर के भेद से जीवों के दो भेद कहे गए हैं। अब उन्हीं के प्रकारान्तर से दो भेद बतलाने के लिए कहते हैं-वे जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से पुनः दो प्रकार के हैं । पर्याप्ति अर्थात् शक्ति छह प्रकार की है (१) आहार पर्याप्ति (२) शरीरपर्याप्ति ( ३ ) इन्द्रियपर्याप्ति ( ४ ) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति (५ ) भाषापर्याप्ति और (६) मनः पर्याप्ति । कोई जीव आहार आदि पर्याप्ति से युक्त होते है और कोई-कोई उनसे रहित होते हैं । ये जब तक पूर्ण पर्याप्ति नहीं बाँधते तब तक अपर्याप्त कहलाते हैं । इस कारण कोई जीव पर्याप्त और कोई अपर्याप्त कहलाते हैं ॥७॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧