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जयपुर " में किया. चौमासे बाद "बक्षीराम " साधु के साथ " माधोपुर " " रणथंभोर " होके, "बुंदी" "कोटा” शहेर में गये. वहां ढुंढक साधुओं में श्रेष्ठ " मगनजी स्वामी" थे, तिनको मिलनेकी श्री आत्मारामजीकी उत्कंठा हुई. परन्तु उस समय मगनजी स्वामी भानपुर में थे. इस वास्ते श्रीआहमारामजी भी भानपुर जाके तिनको मिले. वहां दोनोंही आपस में चर्चा वार्त्ता होनेसें अत्यानन्दको प्राप्त हुए. श्री आत्मारामजी भानपुरसें विहार करके "सीताम" "उजावरा" होके "सलाना" गाम में अपने गुरुको मिलके, “ रतलाम " गये. तहां ढुंढकमतका जानकार "सूर्यमल्ल" कोठारी था, जो जैनमतके ११शास्त्र सच्चे हैं और शेष यतियों की कल्पनासें बने हुवे है, ऐसा मानताथा तिसको श्रीआत्मारामजीने हेतुयुक्ति देकर निरुत्तर किया, बाद तहांसे चलके " खोचरोद " " वंदावर ११ वडनगर " " इंदोर " और " धारानगरी में " होके " रतलाम " फिर आये. और संवत् १९९६ का चौमासा वहां किया मगनजी स्वामीने भी तहांही चौमासा किया. जिससे श्री आत्मारामजी की उनके पास विद्याभ्यास करनेकी उत्कंठा, आनायासही सफल हुई. श्री आत्मारामजीने उनके पास सें कम की जितनी पुंजीथी - ढुंढक मतवाले ३२ शास्त्र मानते हैं - सर्व लेली. अर्थात् ३२ ही शास्त्र पढ लिये और कितनेक कंठाग्र भी कर लिये.
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अब श्रीआत्मारामजी के मनमें पूर्वोक्त कर्मरोगके प्रायः जीर्ण होनेसें ऐसी आशंका होने लगी कि, मैंने ढुंढकमतके सर्व शास्त्र देखे और इस मतके प्रायः सर्व प्रसिद्ध पंडितों को मैं मिला, तिन सर्वका कहना एक दूसरेसें विरुद्ध है. किसी एक बाबतमें कोई कीसी तरहका अर्थ करता है, और दूसरा दूसरी तरहका अर्थ करता है, और जहां कोई अर्थ ठीक ठीक भान नही होता है तो चार पांच जने एकत्र होकर सलाह करके मनः कल्पितअर्थ कर लेते हैं, जिसको पंचायती अर्थ कहते हैं. पंजाब देशके ढुंढको में प्रायः पंचायतीही अर्थ चलता है. तो अब मुजे कौनसा मत सत्य मानना, और कौनसा असत्य मानना चाहिये ? और कितनेक लोक ४५ आगम मानते हैं, कितनेक ३२, कितनेक ३१, और कितनेक ११ शास्त्र मानते हैं. तो इनमें सच्चे कौन और झूठे कौन ? मुजे कितने शास्त्र सच्चे मानने चाहिये ? क्योंकि " बुंदीकोटा " वाले ढुंढक शास्त्रोंके अर्थ, अपने मुखसें मनोघटित करते हैं. मारवाडी ढुंढक भाषारूप जो टबार्थ लिखा है उसमेंसें अपने मतके अनुयायी, अर्थको मानते हैं, और शेष छोड देते हैं, या तिस पाठ पर हडताल लगाके ऊपर अपनी मति कल्पनाका अर्थ लिख देते हैं, तथा " तपगच्छ "6 खरतरगच्छ " वाले कहते हैं, कि ढुंढक लोग शास्त्रोंका यथार्थ अर्थ नही जानते हैं इत्यादि अनेक संकल्प विकल्प करके अंत में श्री आत्मारामजीने यह निश्चय किया कि, संस्कृत प्राकृत व्याकरण पढने के पीछे शास्त्रों के यथार्थ जे अर्थ होते होवेंगे, वे, मैं मानुंगा. इस वखत श्री आत्मारामजीको वैद्यनाथ पटवेका और फकीरचंदजी का कहना सत्य सत्य भान हुआ. "
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दोहा - तबलग घोवन दूध है, जबलग मिले न दूध ॥
तबलो तत्त्व तत्त्व है, जबलो शुद्ध न बुद्ध ॥ १ ॥
*जैनमतके शात्रोंसें भी सिद्ध होता है कि, व्याकरण अवश्यमेव पढना चाहिये. क्योंकि, श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र में लिखा है कि- नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्वित, समास, संधिपद, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रियाविधान, धातु, स्वर, विभक्ति, वर्ण, इनों करके युक्त- तथा जनपद सत्य, सम्मत सत्य, स्थापना सत्य,
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