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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२
अक्टूबर-दिसम्बर २००४
आगमिक मान्यताओं में युगानुकूलन
नंदलाल जैन*
आगमों की प्रामाणिकता के आधार
जैनों में आजकल आगम, शब्दार्थ (उत्तान?) और कुछ प्रचलित परम्पराओं की अंतर्विवेचना का युग चल रहा है। आगमों का आधार लेकर नये-नये प्रश्नों को उपस्थित किया जाता है। इन प्रकरणों में आगमों की सत्यता प्रकट करते हुए अपनेअपने मत प्रतिपादित किये जा रहे हैं। प्राय: 'आगम' शब्द से पवित्र ग्रंथों का बोध होता है। ये पवित्र ग्रंथ प्रत्येक धर्मतंत्र में पाये जाते हैं, पर जैनों में एक नहीं, इनकी एक दीर्घ श्रेणी है। वस्तुत: मूल प्रश्न है - आगम क्या हैं और उनकी प्रामाणिकता कितनी है? क्या वे त्रिकाल-सत्य हैं? आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया है कि यद्यपि आज श्रृंत और आगम समानार्थी से माने जाते हैं पर उनमें बहुत अंतर है। 'श्रुत' शब्द अधिक प्राचीन है और उसमें अंशत: विसंवादिता और अंशत: अविसंवादिता भी होती है। इसके विपर्यास में, 'आगम' सदैव अविसंवादी माना जाता है। इस शब्द के अनेक पर्यावाची हैं जिनमें श्रुत, शास्त्र, जिनवाणी, जिनवचन या आप्तवचन आदि मुख्य हैं। शास्त्रों के अनुसार, जिनवाणी तो
१. अठारह दोष रहित एवं वीतराग द्वारा कथित २. खण्डन रहित ... ३. प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणों से अबाधित ४. बाधक प्रमाण रहित
५. युक्ति-शास्त्र-अविरोधी या अविसंवादी होती है। इसकी प्रामाणिकता के ये ही आधार हैं। महाप्रज्ञ का कथन है कि अविसंवादी आगम तो स्वत: प्रमाण हैं और अंगबाह्य श्रुत आगम-आधारित होने से परतः प्रमाण होते हैं।
दिगम्बर जैनों के इतिहास से हमें पता चलता है कि दिगम्बरों की उत्कट तपोसाधना के बावजूद भी क्रमिक प्रज्ञा-हानि एवं स्मृतिहानि के कारण तथा अन्य कारणों से भी, हम वर्तमान जिनवाणी को महावीर निर्वाण के ६८३ वर्ष (या १५६ ई०) के बाद केवल अंशत: ही स्मृति में रख सके। पं० कैलाश चंद्र शास्त्री के अनुसार गुरु-शिष्य-परंपरा की सुदृढ़ नीव और तपोबल की शक्ति के भ्रम में दिंगबरों ने जिनवाणी *जैन सेन्टर, रीवा, म०प्र०
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