Book Title: Sramana 2004 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 128
________________ छाया: सः कोऽपि नास्ति जीवः त्रि-लोकमध्ये यः वशं न गतः। मृत्योः पाप-मतेः मुक्त्वा सिद्धान् सुख-समृद्धान् ।।१३८।। अर्थ :- त्रणे लोकनी मध्यमा एवो कोई जीव नथी के जे पापमतिवाळा मृत्युने वश न थयो होय. सुख-समृद्धिवाळा सिद्धभगवंतोने छोडीने. हिन्दी अनुवाद :- सुख समृद्धिवाले सिद्धभगवंतों को छोड़कर तीनों लोक के मध्य में ऐसा कोई जीव नहीं है कि जो पापमतिवाले मृत्यु के वश न हुआ हो। गाहा : इय काल-कवलियं पेच्छिऊण सयलंपि ति-हअणं देव!। जायम्मि देवि-मरणे किं सोगं कुणह विहलं तु ? ॥१३९॥ छाया: इति काल - कवलितं दृष्टवा सकलमपि त्रिभुवनं देव !। जाते देवि - मरणे किं शोकं कुरुथ विफलं तु ? ||१३९|| अर्थ :- हे देव ! आ प्रमाणे काळवड़े कवलित करायेल सकल त्रिभुवनने जोईने देवी- मरण थये छते फोगट शोक केम करो छो ? हिन्दी अनुवाद :- हे देव ! इस प्रकार काल से कवलित सम्पूर्ण त्रिभुवन को देखकर देवी के मरण में आपको इतना शोक क्यों है ? गाहा : जुज्जइ काउं सोगो मरणं जइ होज्ज तीए एक्काए । साहारणम्मि मरणे को सोगो किं. व रुनेण ? ॥१४०।। छाया : युज्यते कर्तुं शोकः मरणं यदि भवेत् तस्याः एकाक्याः।। साधारणे मरणे कः शोकः किं वा रुदितेन ? ||१४०।। अर्थ :- जो ते एकलीनुं ज मरण थयु होय तो शोक करवो योग्य छे, बाकी साधारण मरणमां कयो शोक ? अथवा मरणवड़े शुं? हिन्दी अनुवाद :- यदि उन अकेली की मृत्यु हुई हो तो शोक करना योग्य है, अन्यथा साधारण मृत्यु में क्या शोक ? अथवा मृत्यु से क्या? गाहा : अइ-तणु-तणग्ग-संगय-जल-लव - तल्लम्मि जीवियवम्मि । निद्दा-संगे जं पुण उट्ठिज्जा तं महच्छरियं ॥१४१॥ छाया: अति-तनु-तृणान-सङ्गत-जल-लव-तुल्ये जीवितव्ये। निद्रा-सङ्गे यद् पुनः उत्थीयते तद् महाश्चर्यम् ।।१४१।। अर्थ :- अत्यंत पतला घासना अग्रभागे लागेला पाणीनां बिन्दु समान जीवितमां निद्राना संग ने पामेलो जे उठे छे ते ज महान् आश्चर्य छे. 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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