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छाया :
तां गृहीत्वा वरमणि सिञ्चस्व सलिलेन तेन ततः पश्चात् ।
आच्छोटय भुजंगान् अंग विलग्नान् महंतमनेकान् । । २४४ । ।
अर्थ :- आ श्रेष्ठमणिने ग्रहण करीने तेने पाणीवडे सिञ्च, त्यार पछी अंगपर लागेला, मोटा अनेक सर्पानी पर छंटकाव कर.
हिन्दी अनुवाद :- इसीलिए इस श्रेष्ठमणि को लेकर उस पर पानी द्वारा सिञ्चन कर, तत्पश्चात् अंग पर लगे हुए बड़े सर्पों पर उस पानी का छिड़काव कर । "
गाहा :
छाया :
आमंति भणंतेणं तव्वयणं सायरं कयं अच्छोडिया जलेणं झत्ति विलीणा अह
छाया :
आमिति भणमाणेन तद्वचनं सादरं कृतं सर्वम् । आच्छोटिता जलेन झटिति विलीना अथ भुजङ्गाः || २४५ ॥ अर्थ :- 'हा' प्रमाणे कहेता मारा वड़े तेनु वचन सर्व पण आदर सहित करायु. हवे पाणीवड़े छंटायेल ते सर्पो जल्दीथी दूर चाली गया.
हिन्दी अनुवाद :'हाँ' इस प्रकार कहते हुए मेरे द्वारा उनके वचन का पालन किया गया और जल से सिञ्चित वे सर्प भी शीघ्र दूर चले गये। गाहा :- अविय !
मणि - सलिलेणं सित्ता खणेण सव्वेवि पाविया विलयं । जलणोवताविया मयण - पिंडव्व ॥ २४६॥
खर- जालावलि
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छाया :- अपि च
मणि-सलिलेन सिक्ता क्षणेन सर्वेऽपि प्राप्ता विलयम् । खर - ज्वालावलि ज्वलनोपतापिता मदन- पिण्ड हव ।। २४६ ।। अर्थ :- मणिना पाणिवड़े सिञ्चायेल क्षणवारमां सर्वे पण सर्पों भयंकर - भडभडता आगथी तपावेला मीणनी जेम विलीन थई गया.
हिन्दी अनुवाद :- ज्वालामुखी की आग से तप्त मोम की तरह मणि के जल से सिञ्चित वे सभी सर्प भी उसी क्षण विलीन हो गये।
गाहा :
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अह सो पणट्ट - वियणो सोयल - तरु छाहियाए उवविट्ठो ।
मह - पुरिस-कय- सुकोमल - किसलय - संछण्ण - संथरए ॥ २४७ ॥
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अथ स प्रणष्ट - वेदनाः शीतल तरु छायायां उपविष्टः ।
मम पुरुष कृत सुकोमल किशलय संछन्न संस्तारके ।। २४७ ।। अर्थ:- हवे चाली गयेली वेदनावालो शीतल वृक्षनी छायामां मारा वड़े करायेल सुकोमल कुंपलोथी आच्छादित गादीमां ते पुरुष बेठी.
सव्वं ।
भुयंगा ॥ २४५ ॥
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