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निर्मल-मणि-वलय-समुल्लसत् कान्त्या प्रकट - वदनैः । गुरु-रोष-वश-विजृम्भित-स्फार-फणा - घोर - भुजगैः ||२३६|| दीर्घ ललत् जीहा-सहस्र - विस्फुरण • भीति - जनकैः । असदृश-अमर्ष - वश - विप्रमुक्त - फुकार - शब्दैः ।।२३७।। अतिगुरुक . पनगैः समन्ततः वेष्टितो. अनेकैः ।
एको दिव्याकारः पुरुषः दृष्टः अधस्तस्या ।।२३८।। अर्थ :- जोवामात्रथी भय पमाडनार, लाल आँखवाळा, काळा शरीरथी निकळती अत्यंतकांतिथी आकाश भरनार, निर्मळ मणि समूहनी उज्ज्वल कांतिवड़े चमकता मुखवाळा, अतिरोषथी फणाने वारंवार उंची करता, लांबी चंचळ हजारो जिह्वाथी भीतिने पैदा करता, भयंकर क्रोधने वशथी वारंवार फुफाडा मारता अति मोटा सर्पोवड़े चारे बाजुथी विंटायेल ते वृक्षनी नीचे एक दिव्याकारवाळा पुरुषने मे जोयो. हिन्दी अनुवाद :- दृष्टिपात से ही भयंकर, रक्तवर्णीय नेत्रोंवाला, कृष्ण शरीर से निकलती हुई कान्ति से आकाश व्याप्त करनेवाले, निर्मल मणि समूह की उज्ज्वल कांति से चमकीले मुखवाले, अतिरोष से फण को बार-बार ऊपर करनेवाले, चंचल सहस्त्र जिह्वा से भय प्रदान करनेवाले, भयंकर क्रोध से बार-बार फुफ्कार करते अति बड़े सर्पो से चारों ओर वेष्टित उस वृक्ष के नीचे एक दिव्याकारवाले पुरुष को मैंने देखा। गाहा :
अइदूसह-वियणा - वस - विमुक्क - पुणरुत्तं - मंद-हंकारं । आकंठ - वेढियं तं दट्टुं पुरिस मए भणियं ॥२३९॥
छाया:
अतिदुःसह वेदना-वश-विमुक्त-पुनरुक्तं मन्द-हंकारम् ।
आकण्ठ - वेष्टितं तं दृष्ट्वा पुरुष मया भणितम् ।।२३९।। अर्थ :- आकंठ विंटाळायेल ते पुरुषने जोईने मारावड़े कहेवायु, अने तेना वडे अतिदुःसह वेदनाना वशथी वळी मन्द हुंकार करायो. हिन्दी अनुवाद :- आकंठ वेष्टित उस पुरुष को देखकर मैंने उनसे कहा और उसने दुःसह वेदना के वश से अति मंद हुँकार किया। गाहा :
धी! धी! हय विहिणो विलसियस्स असमिक्खियस्स एयस्स ।
एयारिसेवि पुरिसे एरिस . दुक्खं करेंतस्स ॥२४०॥ छाया:
धिक् ! धिक् ! हत विधिना विलसितस्य असमीक्षितस्य एतस्य ।
एतादृशेऽपि पुरुष ईदृश . दुःखं कुर्वतः ||२४०।। अर्थ :- “धिक्कार हो ! धिक्कार हो ! आवा प्रकारना पण पुरुषने विषे विचार्या वगर आवा प्रकारनुं दुःख करनार आ विलासने धिक्कार हो ! एवी आ विधिवड़े सयु"
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