Book Title: Sramana 2004 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 157
________________ हिन्दी अनुवाद :- “इस प्रकार के पुरुष को ऐसे दुःख देनेवाले इस शोचनीय (बिना चिन्तित) विलास को धिक्कार हो (भाग्य से घायल हुए) धिक्कार हो, धिक्कार हो।" गाहा : एमाइ मए परिदेवियम्मि भणियं इमं तओ तेणं । अलमिमिणा ते परिदेविएण सुण ताव मह वयणं ॥२४१॥ छाया: एवमादिः मया परिदेविते भणितं इदं ततस्तेन । अलममुना तव परिदेवितेन श्रुणु तावत् मम वचनम् ||२४१।। अर्थ :- इत्यादि मारा वड़े विलाप कराये छते तेनावड़े आ प्रमाणे कहेवायु, "अत्यारे तारे आ विलापवड़े सर्यु. त्यां सुधी मारु वचन सांभळ." हिन्दी अनुवाद :- इत्यादि मेरे द्वारा विलाप करने पर भी उसने कहा, "अभी तुझे यह विलाप करना उचित नहीं है, तू मेरा वचन सुन।" गाहा : - चिट्ठइ चूडाए महं मझे बद्धो फुरंत . किरणिल्लो । दिव्वो मणीण पवरो मणी भुयंगोह - विद्दवणो ॥२४२।। छाया: तिष्ठति चूडायां मम मध्ये बद्ध स्फुरत्-किरणशीलः । दिव्यः मणीनां प्रवरो मणिः भुजंगौघ-विद्रावणः ।।२४२।। अर्थ :- मारी चूडानी मध्यमा देदीप्यमान किरणोवालो दिव्य-मणीओमा श्रेष्ठ, सोना समूहने विद्रवित करतो मणी छे. हिन्दी अनुवाद :- मेरी चूड़ा के मध्य में दिव्य-मणियों में श्रेष्ठ, देदीप्यमान किरणवाला सर्प के समूह को दूर करनेवाला मणि है। गाहा : जस्स पभावेण इमे डसिउमणावि ह चयंति नो डसिउं । घोर - विसावि हु सप्पा सप्पंति न बद्ध-वयणव्व ॥२४३।। छाया: यस्य प्रभावेण इमे इंसितुंमनापि खलु शक्नुवन्ति न दष्टुं । घोर - विषाऽपि खलु सर्पा सर्पन्ति न बद्ध · वदन इव ||२४३|| अर्थ :- जेना प्रभावथी आ डंसवाना स्वभाववाळा दंशवामाटे समर्थ बनता नथी, बांधेला मुखनी जेम घोर विषवाळा पण सो दंश मारता नथी. हिन्दी अनुवाद :- जिनके प्रभाव से यह डंकीले स्वभाव वाले, अति भयंकर विषवाले भी ये सर्प बंधे हुए मुख की तरह दंश देने में समर्थ नहीं हैं। गाहा : तं घेतूणं वर - मणिं सिंचसु सलिलेण तेण तो पच्छा । अच्छोडेसु भुयंगे अंग - विलग्गे महमणेगे ॥२४४।। 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 155 156 157 158 159 160 161 162