Book Title: Sramana 2004 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 148
________________ गाहा : सो च्चिय कज्ज-वसेणं वल्लहओ होइ एत्थ संसारे । कारण वसेण सोवि हु रिउब वेसो जणो होइ ॥२०८॥ छाया : स एव कार्य-वशेन वल्लभो भवति अत्र संसारे । कारण-वशेन सोऽपि रिपुः इव द्वेष्यः जनो भवति ।।२०८।। अर्थ :- ते ज कार्य वशथी आ संसारमा प्रिय बने छे अने कारण वशथी ते पण शत्रुनी जेम द्वेष्य जन बने छे. हिन्दी अनुवाद :- संसार में कार्य की परवशता से जो प्रिय बनता है, वही किसी कारण से शत्रु की तरह द्वेष्य भी बनता है। गाहा : परमत्यओ न कोवि हु पिओ व सत्तू व अत्यि लोगम्मि । नइ माया नेय पिया स - कज्ज - वसओ जणो सव्वो ॥२०९॥ छाया : परमार्थतो न कोऽपि हि प्रियो वा शत्रुः वा अस्ति लोके । न माता न पिता स्व - कार्य - वशतो जनः सर्वः ||२०९|| अर्थ :- आ लोकमां परमार्थथी कोइ पण प्रिय नथी अथवा कोई शत्रु नथी. माता नथी, पिता नथी, परंतु सर्वजन पोताना कार्य ना वशथी प्रिय अप्रिय बने छे. हिन्दी अनुवाद :- इस लोक में परमार्थ से कोई प्रिय नहीं है और कोई शत्रु भी नहीं है, माता नहीं है, पिता भी नहीं हैं, किन्तु सर्वजन स्वयं के कार्य से प्रिय-अप्रिय बनते हैं। , गाहा : पुत्तोवि सत्तु सरिसो दीसइ निय-कारणे अपुज्जते । पिउणा सुविणीओवि हु धिरत्थु संसार-वासस्स ॥२१०॥ छाया : पुत्रोऽपि शत्रुः सदृशः दृश्यते निज-कारणे अपूर्यमाणे। पित्रा सुविनीतोऽपि खलु धिग् अस्तु संसार-वासस्य ।।२१०।। अर्थ :- पोतानुं कार्य पूर्ण नहीं थतां पितावड़े सुविनीत पुत्र पण शत्रु जेवो देखाय छे, संसार वासने खरेखर धिक्कार हो धिक्कार हो. हिन्दी अनुवाद :- कार्य पूर्ण न होने पर सुविनीत पुत्र भी पिता का शत्रु बनता है। निश्चित ही संसारवास को धिक्कार हो ! धिक्कार हो ! गाहा : तं चिय कुमर ! महप्पा तं चिय पसमस्स लद्ध-परमत्थो । तं चिय विवेय - जुत्तो तुमए च्चिय मंडिया वसुहा ॥२११॥ 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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