Book Title: Sramana 2004 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 150
________________ हिन्दी अनुवाद :- उतनी देर में समस्त सार्थ को जाने के लिए उत्सुक देखकर धनदेव सुप्रतिष्ठ पल्लीपति से आज्ञा लेता है। गाहा : तुम्ह विओगो दूसहो एसो सत्थो समुच्छुगीभूओ। तं कुमर ! अम्ह जायं एत्य तडी एत्थ वग्घोत्ति ।।२१५।। एएणं चिय नेच्छंति साहवो सज्जणेहिं संसग्गिं । जम्हा विओग-विहुरिय-हिययस्स न ओसहं अन्नं ॥२१६॥ छाया: तव वियोगः दुःसहः एषः सार्थः समुत्सकीभूतः । त्वं कुमार ! अस्माकं जातं अत्र तटी अत्र व्याघ्र इति ।।२१५|| एतेन एव नेच्छन्ति साधवः सज्जनैः संसर्गम् । यस्मात् वियोग विधुरित-हृदयस्य न औषधं अन्यत् ।।२१६।। अर्थ :- “एक बाजु तारो वियोग दुःसह छे. बीजी बाजु आ सार्थ जवा माटे उत्सुक थयो छे. हे कुमार ! तुं अमारो थयो छे. 'अहीं तट अने आ बाजु वाघ आथी ज साधुओ सज्जनोनी साथे संसर्गने ईच्छता नथी, जे कारणथी वियोग थी विधुरित हृदय नु बीजं कोई ज औषध नथी. हिन्दी अनुवाद :- एक तरफ तेरा वियोग दुःसह है और दूसरी तरफ यह सार्थ जाने के लिए उत्सुक है और हे कुमार ! तूं भी हमारा हो गया है, 'इधर तट और दूसरी ओर शेर (बाघ)' इसीलिए संत पुरुष सज्जनों के साथ संसर्ग की इच्छा नहीं करते हैं, अतः वियोग से विधुरित सहृदयियों को और कोई औषधि नहीं है। गाहा : जइवि ह वहइ न जीहा एरिस-वयणे समुल्लविज्जते । तहवि हु भणामि मुंचसु गच्छामों संपयं अम्हे ॥२१७॥ छाया: यद्यपि खलु विध्यति न जीहा ईदृश-वचने समुल्लप्यते । तथापि खलु भणामि मुञ्चस्व गमिष्यामः साम्प्रतं वयम् ||२१७।। अर्थ :- आवा प्रकारना वचन बोले छते पण जीभ वींधाति नथी तो पण कहुं छु मने छोडो हवे अमे जइशु. हिन्दी अनुवाद :- इस प्रकार वचन बोलने पर भी जिह्वा रुकती नहीं है, फिर भी कहता हूँ मुझे छोड़ो अब हम जायेंगे। गाहा : ता किंपि चिंतिऊणं खणंतरं दीहरं च नीससिउं । वज्जरइ सुप्पइट्रो सविसायं एरिसं वयणं ॥२१८॥ ___45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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