Book Title: Sramana 2004 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 153
________________ छाया: ततो भणति सुप्रतिष्ठः सम्यक हि विनिश्चितं त्वया भद्र !! मानुष्य - क्षेत्र - समुत्थः न भवति एषः मणी तावत् ||२२५।। अर्थ :- त्यार पछी सुप्रतिष्ठ कहे छे - हे भद्र ! तारा बड़े साचो निश्चय करायो छे. आ मणि मनुष्य क्षेत्रमा उत्पन्न थयेलो नथी. हिन्दी अनुवाद :- तत्पश्चात् सुप्रतिष्ठ कहता है - हे भद्र ! तेरे द्वारा यथातथ्य कहा गया है। यह मणि मनुष्य क्षेत्र में उत्पन्न नहीं हुआ है। गाहा : किंतु सुर - लोग - जाओ एसो संपाविओ जं हम्हेहिं । तं एग - मणो होउं जइ कोउगमत्थि तो सुणसु ॥२२६॥ छाया: किन्तु सुर-लोक-जातः एषः संप्राप्तः यदस्माभिः । तद् एक-मनः भूत्वा यदि कौतूकमस्ति तदा श्रुणु ||२२६।। अर्थ :- परंतु अमारावड़े आ देवलोक थी प्राप्त करायेलो छे जो तने. ते कौतुक छे तो एक चित्तवाळो थईने सांभळ.......... हिन्दी अनुवाद :- किन्तु हमारे द्वारा प्राप्त किया हुआ यह मणि देवलोक का है वह तुझे कौतुक है, तो तू एक चित्तवाला होकर सुन। सुप्रतिष्ठ द्वारा दिव्यमणि वृत्तांत कथन गाहा: पुव्वं एगम्मि दिणे पभाय - समयम्मि गहिय - कोदंडो। चलिओ कइवय - निय - पुरिस - परिगओ मिग - वहट्टाए ॥२२७॥ छाया: पूर्वं एकस्मिन् दिने प्रभात • समये गृहीत-कोदण्डः । चलितः कतिपय-निज-पुरुष-परिगतः मृग-वधार्थम् ||२२७।। अर्थ :- पहेला एक दिवस सवारना समये ग्रहण करेला धनुष्यवाळो केटलाक पोताना पुरुषोथी परिवरेलो मृगना वधमाटे गयो. हिन्दी अनुवाद :- पहले एक दिन प्रातः काल धनुष लेकर मैं अपने कुछ पुरुषों के साथ मृगया के लिए गया। गाहा : उत्तर-दिसा मुहो हं गाउयमेत्तम्मि भूमि-भागम्मि । घण-पत्तल - तरु - वर • संकुलम्मि वियरामि जाव वणे ॥२२८॥ छाया:उत्तर - दिग - मुखोऽहं गव्यतमात्रे भमि-भागे । घन-पत्र-तरुवर-सङ्कुले विचरामि यावत् वने ||२२८|| अर्थ :- उत्तर दिशा सन्मुख हुंगाढ़ पत्र-वृक्षथी व्याप्त वनमां गाऊ मात्र भूमिभाग मां हुं फरतो हतो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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