Book Title: Sramana 2004 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 51
________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४ तथा साथ रहने का भी विधान था, परन्तु गच्छाचार तथा बृहत्कल्पभाष्य के रचनाकाल तक इन सब पर कठोर नियन्त्रण लगा दिया गया। जैन एवं बौद्ध दोनों ही धर्मों में जाति, लिंग, धर्म, वर्ण आदि का भेद किये बिना पुरुष और स्त्री की समानता पर बल दिया गया, परन्तु इनकी संगठनात्मक व्यवस्था पर तत्कालीन सामाजिक मूल्यों का गहरा प्रभाव पड़ा है। भिक्षु-भिक्षुणियों के मध्य निमयों की समानताओं एवं सैद्धान्तिक उच्चादर्शों के बाद भी यह स्पष्ट है कि दोनों धर्मों में भिक्षु की तुलना में भिक्षुणी की स्थिति निम्न थी। जैन एवं बौद्ध धर्म में क्रमश: “पुरुषज्येष्ठ धर्म' के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। दोनों ही संघों में सद्यः प्रव्रजित भिक्षु चिरप्रव्रजित भिक्षुणी से श्रेष्ठ माना गया तथा भिक्षुणियों को भिक्षु की वन्दना तथा कृतिकर्म करने का निर्देश दिया गया। जैन एवं बौद्ध भ्रमण-संघों में संघ की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा नियमों को दृढ़ता से स्थापित करने के लिए दण्ड की व्यवस्था की गयी। दण्ड के भय से भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ नियमों का अतिक्रमण नहीं करेंगे, यह विश्वास किया गया। अपराध करने पर उसके निवारण के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। प्रायश्चित्त अनिवार्य है भले ही उसकी गुरुता अत्यन्त कम हो। दण्ड का उद्देश्य हमेशा शिक्षात्मक होता था। अभियुक्त को उपयुक्त दण्ड देने के अतिरिक्त अन्य लोगों को शिक्षा देने के लिए इसका प्रयोग किया गया। इसके मूल में यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिकता निहित हो सकती है कि बुरे व्यक्ति भी अच्छे बन सकते हैं और ऐसा कोई कारण नहीं है कि एक बार सत्पथ से विचलित हुए भिक्षु-भिक्षुणी को यदि सम्यक् मार्गदर्शन मिले तो वह सुधर नहीं सकते हैं। जैन एवं बौद्ध धर्म में श्रमण-संघ की स्थापना उन नारियों के लिए एक वरदान सिद्ध हुई जो समाज से किसी प्रकार संत्रस्त थीं। ऐसी नारियों को जिन्हें सामाजिक प्रताड़नाओं से मुक्त सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने का कोई विकल्प नहीं था, जैन एवं बौद्ध धर्मों के श्रमण संघों ने आश्रय एवं भयमुक्त वातावरण प्रदान किया। श्रमणसंघ ने विद्याध्ययन के लिए स्वस्थ वातावरण प्रदान किया। ऐसे कई जैन एवं बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जो आगमों एवं पिटकों में निष्णात थे। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि श्रमण-संघ में विधिशास्त्र की उपयोगिता कई दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण है। यह एक विशिष्ट प्रकार का आश्रयस्थल तथा सुधारगृह है जहाँ भयमुक्त अनुकूल वातावरण मिलने पर नर-नारियों को अपने ज्ञान एवं बुद्धि के चतुर्दिक विकास का सुनहरा अवसर उपलब्ध हुआ। इस प्रकार श्रमण-श्रमणियाँ विधिशास्त्रीय नियमों का परिपालन करते हुए लोक-कल्याण हितार्थ समाज को शुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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