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४४ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४
जैसे-जैसे जैन धर्म का प्रचार बंढ़ता गया, जैन भिक्षु-भिक्षुणियों के भ्रमण-क्षेत्र में भी विस्तार होता गया। उन्हें अन्य क्षेत्रों में यात्रा करने का निषेध इसीलिए किया गया ताकि उन्हें आहार तथा उपाश्रय (आवास) आदि प्राप्त करने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। बौद्ध भिक्षुणियों को भिक्षु-संघ के साथ ही वर्षावास व्यतीत करने का निर्देश दिया गया है, क्योंकि बौद्ध भिक्षुणियों के प्रवारणा (प्रतिक्रमण), उपोसथ तथा उवाद (उपदेश) जैसे धार्मिक कृत्य बिना भिक्षु-संघ की उपस्थिति के नहीं हो सकते हैं। इसके विपरीत जैन भिक्षुणियाँ भिक्षु संघ के अभाव में भी अपना वर्षावास व्यतीत कर सकती हैं एवं उपोसथ या प्रवारणा के लिए उन्हें भिक्षु-संघ के समक्ष उपस्थित होना अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार भिक्षु-भिक्षुणियों को यात्रा सम्बन्धी अनेक मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। संघ के नियमानुसार जैन एवं बौद्ध दोनों भिक्षुणियों को अकेले यात्रा करने की अनुमति नहीं है।
जैन भिक्षु-भिक्षुणियों को यद्यपि जीव-जन्तुओं से युक्त तथा उद्देश्यपूर्वक निर्मित५ उपाश्रय (आवास) में ठहरना निषिद्ध है, परन्तु इन नियमों का अपवाद देखने को मिलता है। जैन भिक्षुओं के निवास के लिए गुफाओं या विहारों के निर्माण के उल्लेख ईसापूर्व की शताब्दियों से ही प्राप्त होने लगते हैं। मथुरा के एक शिलालेख से ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य एक जैन मन्दिर के विद्यमान होने का प्रमाण प्राप्त होता है। इसमें उत्तरदासक नामक एक श्रावक द्वारा एक प्रासाद-तोरण समर्पित किये जाने का उल्लेख है।
___ महात्मा बुद्ध मूलत: बौद्ध भिक्षु-संघ या भिक्षुणी-संघ के आवास या विहार के निर्माण के समर्थक नहीं थे। भिक्षुओं को उपसम्पदा के समय जिन चार निश्रयों की शिक्षा दी जाती थी उसमें से एक निश्रय के अनुसार उन्हें वृक्ष के नीचे निवास करना है। परन्तु संघ में भिक्षुणियों के प्रवेश के अनन्तर उनकी सुरक्षादि की दृष्टि से अनेक अन्य नियमों का निर्माण किया गया। भिक्षुणी के अकेले रहने या जंगल में रहने पर शील-अपहरण के भय से उनके लिए विहार की व्यवस्था स्वीकार कर ली गई। सिंहली ग्रन्थों से तृतीय शताब्दी ईसापूर्व में भिक्षुणियों के लिए निर्मित विहारों का उल्लेख प्राप्त होता है। भिक्षुणी संघमित्रा के ठहरने के लिए देवानांप्रिय तिस्स ने हत्थाल्हक विहार बनवाया था। अत: बौद्ध भिक्षुणियों के लिए विशिष्ट विहार निर्मित हुए, परन्तु जैन भिक्षुणियों के लिए इस प्रकार के किसी विशिष्ट विहार का उल्लेख नहीं प्राप्त होता और न ही किसी जैन भिक्षुणी को 'नवकम्मक' अथवा 'विहारस्वामिनी' कहा गया।
उत्तराध्ययन में जैन 'श्रमण-संघ' की दिनचर्या सम्बन्धी नियमों का विस्तार से वर्णन किया गया है। षट् आवश्यक (सामायिक, स्तवन, वन्दन, प्रतिक्रमण,
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