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जैन एवं बौद्ध श्रमण-संघ में विधि शास्त्र का विकास : एक परिचय : ४३
किया गया है, जबकि वैदिक परम्परा के सन्त और बौद्ध परम्परा के भिक्षु उद्दिष्ट आहार ग्रहण करते थे।
दोनों संघों में भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए सादा और सात्विक भोजन का प्रावधान है जिसमें शुद्धता का पर्याप्त ध्यान रखा जाता है। साथ ही यह भी ध्यान रखा गया है कि भिक्षु-भिक्षुणियों के भोजन का भार समाज के किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष पर न पड़े। इस प्रकार आहार के सम्बन्ध में दोनों संघों में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। जो अन्तर है वह दोनों के दृष्टिकोण को लेकर ही है। जैन संघ अति कठोर आचार में विश्वास करता है जबकि बौद्ध संघ मध्यममार्गी है और वह कुछ परिस्थितियों में अपने सदस्यों को छूट देता है।
जैन और बौद्ध श्रमण संघों में वस्त्र सम्बन्धी नियमों के विस्तृत उल्लेख प्राप्त होते हैं। जैन संघ में अचेलकत्व की प्रशंसा की गयी है तथा दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार बिना अचेलकत्व के मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त नहीं की जा सकती। परन्तु इस कठोर दृष्टिकोण के बावजूद श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में निर्वस्त्रता का पूर्णतया पालन सम्भव न हो सका। श्वेताम्बर परम्परा के आगम ग्रंथ आचारांग से लेकर बाद के परवर्ती ग्रन्थों तक में वस्त्र सम्बन्धी अनेक नियमों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में ऐसे विस्तृत नियमों का अभाव है, परन्तु भिक्षुणी के सम्बन्ध में दिगम्बर सम्प्रदाय भी वस्त्र धारण करने का विधान करता है। अचेलकत्व का समर्थन अपरिग्रह महाव्रत के सम्बन्ध में किया गया है। बौद्ध संघ में अचेलकत्व का कभी भी अनुमोदन नहीं किया गया। निर्वस्त्र रहने पर भिक्षु को 'थुल्लच्चय' दण्ड का प्रायश्चित्त करना पड़ता था। वस्त्र को वितरित करने के लिए संघ में कुछ पदों का भी निर्माण किया गया। बौद्ध संघ की यह व्यवस्था जैन संघ में नहीं दिखाई पड़ती। प्रारम्भ में दोनों संघों में भिक्षु-भिक्षुणियों के वस्त्र एवं अन्य उपकरण अत्यन्त सीमित थे, परन्तु कालान्तर में क्रमश: उनमें वृद्धि होती गयी।
जैन एवं बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों के यात्रा सम्बन्धी जो नियम बनाये गये हैं उनका मुख्य उद्देश्य जन-सामान्य को धर्मोपदेश देना तथा स्थान-विशेष से अपनी आसक्ति तोड़ना है। सभी सम्प्रदायों के भिक्षु-भिक्षुणियों को वर्षाकाल में एक स्थान पर रुकने का विधान बनाया गया है जबकि वर्षाकाल के चार महीने को छोड़कर शेष आठ महीने (ग्रीष्म तथा हेमन्त ऋतु में) एक ग्राम से दूसरे ग्राम (ग्रामाणुगाम) विचरण करने का निर्देश दिया गया है। नियमों की निर्माण-प्रक्रिया से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि
जैनाचार्यों एवं बौद्धाचार्यों ने भिक्षुणियों की जीवन-सुरक्षा और शील-सुरक्षा की व्यापक व्यवस्था की है।
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