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जैन एवं बौद्ध श्रमण-संघ में विधि शास्त्र का विकास : एक परिचय : ४१
होता है। वह गृहस्थ वर्ग को आध्यात्मिक मार्ग का पाथेय प्रदान करता है जिस पर चलने के लिए गृहस्थ को कुछ विशिष्ट प्रकार की आचार-व्यवस्था या विधि-व्यवस्था का अनुपालन करना होता है।
इस प्रकार भिक्षु एवं भिक्षुणी-संघ का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ये श्रमण-परम्परा के आधार-स्तम्भ हैं। जैन एवं बौद्ध श्रमण-संघ में निवृत्तिपरक आचारसंहिता या विधि-संहिता का निरूपण हुआ है। विधि व्यवस्था आचरण सम्बन्धी नियमों की परिपालना है जो व्रत के नाम से जानी जाती है। 'व्रत' किसी अन्य द्वारा जबरदस्ती नहीं थोपे जाते अपितु नैतिक उत्कर्ष की ओर अपने दृढ़ कदम बढ़ाता हुआ मानव स्वेच्छा से इन्हें स्वीकारता है। दोनों धर्मों में अधिकांश विधि सम्बन्धी नियमों एवं उपनियमों का निर्माण विशेषतया भिक्ष-भिक्षणियों के लिए किया गया है। जैन एवं बौद्ध श्रमण संघ में यद्यपि व्यक्तिगत साधना की व्यवस्था भी सुरक्षित है, फिर भी सामुदायिक साधना की पद्धति ही मुख्य रही है।
श्रमण-संघ की विधि-व्यवस्था के पीछे मुख्य रूप से आध्यात्मिक चिन्तन रहा है। जैन एवं बौद्ध आचार व्यवस्था का आधार क्रमश: भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध के उपदेश ही थे। परन्तु यह भी सत्य है कि नियम और उपनियमों का निर्माण तीर्थंकर ही नहीं करते, बहुत से ऐसे नियम और उपनियम हैं जिनके निर्माता श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य अनेक गीतार्थ स्थविर रहे हैं। उन्होंने द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव को दृष्टि में रखकर मूल नियमों के अनुकूल उनके समर्थक और अविरोधी नियमोपनियम का निर्माण किया है। जैन आगमों के सर्वप्रथम संस्कृत टीकाकार आचार्य हरिभद्र ने यह स्पष्ट कहा है कि जो भी नियम संयम-साधना में अभिवृद्धि करते हों
और असंयम की प्रवृत्ति का विरोध करते हों वे नियम भले ही किसी के द्वारा निर्मित क्यों न हों, ग्राह्य हैं।
जैन और बौद्ध परम्परा मूलत: आचार प्रधान रही हैं। दोनों परम्पराएँ आचार पर बल देती हैं किन्तु दोनों की पद्धति में उल्लेखनीय अन्तर है। 'आचार' को लेकर ही जैन एवं बौद्ध धर्म में विभिन्न सम्प्रदाय खड़े हुए हैं - जैसे श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी और हीनयान, महायान आदि। बौद्ध परम्परा में आचार के स्थान पर 'शील' तथा जैन परम्परा में 'आचार' और 'चारित्र' शब्द का प्रयोग किया गया है।
श्रमण का जीवन एक उच्चस्तरीय नैतिकता एवं आत्मसंयम का जीवन है। श्रमण संस्था पवित्र बनी रहे इसलिए श्रमण संस्था में प्रविष्ट होने के लिए कतिपय योग्यताओं एवं नियमों का होना आवश्यक माना गया है। जैन एवं बौद्ध परम्परा में भिक्षु संघ में प्रवेश पाने के लिए यद्यपि वर्ण एवं जाति को बाधक नहीं माना गया
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