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९४ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४
_अपने इस ऐतिहासिक दस्तावेज के माध्यम से लेखक ने स्वतंत्रता सेनानी जैनों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है। इसे पूर्ण करने में उन्हें कितना श्रम करना पड़ा, यह इस पुस्तक के आकार-प्रकार को देख कर भली-भांति समझा जा सकता है। श्रेष्ठ आर्ट पेपर पर मुद्रित सम्पूर्ण ग्रन्थ में अनेकों श्वेत-श्याम चित्र दिये गये हैं जो इसकी महत्ता को द्विगुणित करते हैं। पुस्तक के प्रारम्भ में संविधान सभा के सभी सदस्यों का ग्रुप फोटो दिया गया है, जो स्वयं अपने आप में अनूठा है।
महात्मा गांधी के निकट सहयोगी और जैन विद्या के अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय, रायपुर-छत्तीसगढ़ के सुविख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी खरतरगच्छीय यति जतनलाल का इस पुस्तक में उल्लेख न आना आश्चर्यजनक लगा। आशा है लेखकद्वय इस पुस्तक के द्वितीय खण्ड में उन्हें भी स्थान देने का प्रयास करेंगे।
ऐसे सुन्दर स्मारक ग्रन्थ के लेखक और उसे अत्यधिक व्यय कर प्रकाशित करने वाले प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं। यह पुस्तक प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिये पठनीय और मननीय है। आशा है इसके आगे के भाग भी शीघ्र ही प्रकाशित होंगे।
सम्पादक भारतीय संविधान विषयक जैन अवधारणायें, लेखक - डॉ० कपूरचन्द जैन; प्रकाशक - प्राच्य श्रमण भारती, १२ए - प्रेमपुरी, जैन मंदिर के निकट, मुजफ्फरनगर २५१००१(उ०प्र०); प्रथम संस्करण २००३ ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ ५२+८ चित्र; मूल्य २५/- रुपये।
___भारतीय संस्कृति एक संशिल्ष्ट संस्कृति है। इसके विकास में वैदिक, जैन और बौद्ध संस्कृतियों के साथ-साथ इस्लाम और सिख संस्कृति का भी योगदान रहा है जो आज भी न्यूनाधिक रूप में सर्वत्र देखा जा सकता है। जैन परम्पराओं एवं सिद्धान्तों ने भारतीय समाज को समय-समय पर नये आयाम प्रदान किये हैं। भारत के राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में जैन समाज की प्राचीनकाल से ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है जो अविच्छिन्न रूप से आज चली आ रही है। __डॉ० कपूरचन्द जी दिगम्बर परम्परा के सुप्रसिद्ध युवा विद्वान् और समर्पित लेखक हैं। उनकी लेखनी से अब तक कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ अस्तित्त्व में आ चुके हैं। प्रस्तुत लघु पुस्तिका में उन्होंने भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रभाव, जैन समाज के लोगों का संविधान निर्माण में योगदान, राष्ट्रीय प्रतीकों में जैनत्त्व के प्रतिबिम्बों तथा नागरिकों के मूल अधिकारों एवं कर्तव्यों में सन्निहित जैन जीवन पद्धतियों के मूलभूत तत्त्वों का समीक्षात्मक विवरण प्रस्तुत कर अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है। ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के लेखक और उसके प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं।
सम्पादक
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