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छाया:
मुक्त्वा विरहिणि-जनं सुखदः यद् एषा कामुक-जनस्य ।
पामर-वत्स-तृणौषधि-प्रमुखानां तथा च जीवानाम् ।।१५।। अर्थ :- मात्र विरहिणी स्त्रीओ ने छोड़ी ने आ ऋतु कामुकजनने, पामर, वाछरडा तथा तृण औषधि आदि जीवोने सुख आपनारी थाय छे." हिन्दी अनुवाद :- यह वर्षाऋतु मात्र विरहिणी स्त्रियों को छोड़कर कामुकजन, कृषिजन, वत्स, तृण एवं औषधि आदि जीवों को सुख देने वाली है।"
गाहा :
अह भणइ पुहवी-नाहो ईसिं हसेऊण, देवि ! तं सच्चं ।
आहीणं संजायं जं सुम्मइ एत्थ लोगम्मि ।।९६।। छाया:
अथ भणति पृथवी-नाथ ईषत् हसित्वा, देवि ! तत् सत्यं ।
किंवदन्ती सज्जातं यत् श्रूयते अत्र लोके ।।१६।। अर्थ :- हवे राजा कंहक हसीने कहे छे, “हे देवि ! साची बात छे, आ लोकमां कथा पण एवी छे, सुखी लोको जगत् ने सुखी ज जोवे छे." हिन्दी अनुवाद :- अत: राजा कुछ स्मित हो कर कहता है कि हे देवि ! सच्ची बात है, इस लोक में कथा भी ऐसी ही है। गाहा:
धाया पुरिसा पेच्छंति आयरा घाययं दिसा-वलयं ।
तह देवि ! तुमं सुहिया सव्वं सुहियंति मन्नेसि ।।१७।। छाया :
ध्राताः पुरुषा पश्यन्ति आदरात् धातकं दिग-वलयं ।
तथा देवि ! त्वं सुखिता सर्व सुखि इति मन्यसे ।।९७।। अर्थ :- तथा हे देवि ! तुं सुखा छे माटे सर्वे ने सुखी माने छे। जेम संतुष्ट पुरुषो आदरथी सुकालवाळी दिशावलयने जोवे छे. हिन्दी अनुवाद :- तथा हे देवि ! तू सुखी है इसीलिए सभी को सुखी मानती हो। जैसे संतुष्ट पुरुष आदर से सुकाल वाली दिशावलय को ही देखता है। गाहा :
सव्वेवि देवि ! उउणो सउन्न-लोयस्स होंति सुह-हेऊ । पुन्न-विहूणाण पुणो पाउस-समओवि दुह-हेऊ ।।१८।।
छाया:
सर्वेऽपि देवि ! तु पुनः सपुण्य-लोकस्य भवन्ति सुख-हेतुः ।
पुण्यविहिनानां पुनः प्रावृद-समयोऽपि दुःखहेतुः ।।१८।। अर्थ :- वळी हे देवि ! पुण्यवान् लोको ने सर्वे पण सुख माटे थाय छे. वली पुण्यरहितोने तो वर्षासमय पण दुःखy कारण बने छे.
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