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जैन एवं बौद्ध श्रमण संघ में विधि शास्त्र का विकास : एक परिचय :
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कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान), प्रतिलेखन, आलोचना, ध्यान, स्वाध्याय, भिक्षा - गवेषणा एवं तपादि दिनचर्या के प्रमुख कृत्य हैं। जैन श्रमण संघ के समान बौद्ध श्रमण संघ की दिनचर्या का कोई क्रमबद्ध वर्णन नहीं प्राप्त होता है। फिर भी बौद्ध श्रमण संघ के लिए वन्दना, अध्ययन, अध्यापन, उपदेश, भिक्षाचर्या, ध्यान, समाधि आदि दिनचर्या के आवश्यक कृत्य हैं। दोनों धर्मों के अनुसार भिक्षुणी किसी भिक्षु को उपदेश नहीं दे सकती है, परन्तु अपनी शिष्याओं तथा गृहस्थ भक्तों को उपदेश देने का उन्हें पूरा अधिकार है।
जैन एवं बौद्ध दोनों धर्मों में श्रमण संघ के शील सम्बन्धी नियमों की एक विस्तृत रूप-रेखा प्राप्त होती है। प्राचीन आचार्यों को ब्रह्मचर्य-मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का ध्यान था। इसी कारण प्रव्रज्या का द्वार सबके लिए खुला होने पर भी कुछ अनुपयुक्त व्यक्तियों को उसमें प्रवेश की आज्ञा नहीं थी । १° संघ में प्रवेश के समय अर्थात् दीक्षाकाल में ही इसकी सूक्ष्म छानबीन की जाती थी।
जैसे-जैसे संघ का विस्तार बढ़ता गया, इन नियमों की अवहेलना होती गयी और अनेक सतर्कताओं एवं गहरी छानबीन के बाद भी अयोग्य व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) संघ प्रवेश पा जाते थे। सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक छानबीन के उपरान्त भी ब्रह्मचर्य - स्खलन की घटनाएं घटती रहीं। यह परिकल्पना की गयी कि यदि मनुष्य हमेशा कार्य में लगा रहे, तो बहुत कुछ अंशों में 'काम' पर विजय पायी जा सकती है इसीलिए प्रतीकात्मक कथा के माध्यम से संघ के सदस्यों को यह सुझाव दिया गया कि वे हमेशा ध्यान एवं अध्ययन में लीन रहें तथा मस्तिष्क को खाली न रखें।
भिक्षुणियों की ब्रह्मचर्य-रक्षा का उत्तरदायित्व भिक्षु संघ पर भी है। उनकी शील की रक्षा के निमित्त आचार के बाह्य नियमों का कितना भी उल्लंघन हो, सब उचित है। संघ का यह स्पष्ट आदेश था शील की रक्षा के लिए भिक्षु हिंसा का भी सहारा ले सकता है। अत: संघ की रक्षा एवं उसकी मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिए महाव्रतों की विराधना को भी कुछ अंशों तक उचित माना गया एवं कुछ अपवाद भी स्वीकार किये गये। इस प्रकार जैनाचार्यों एवं बौद्धाचार्यों ने भिक्षुणियों के शील भंग सम्बन्धी प्रत्येक परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए उसके निवारण के लिए अनेक नियम बनाये एवं शील- सुरक्षार्थ कभी - कभी व्यवस्थित नियमों में परिवर्तन भी किया।
जैन ग्रन्थों में भिक्षु भिक्षुणियों से सम्बन्धित नियमों का अनुशीलन करने से स्पष्ट होता है कि प्राचीन आगम ग्रन्थों यथा- आचारांग, स्थानांग आदि की अपेक्षा परवर्ती गन्थों गच्छाचार, बृहत्कल्पभाष्य आदि के रचना काल के समय में भिक्षुणियों के ऊपर भिक्षुओं का और भी अधिक कठोर नियन्त्रण हो गया। स्थानांग में कुछ विशेष परिस्थितियों में भिक्षु-भिक्षुणियों को परस्पर एक दूसरे की सहायता करने, सेवा करने
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