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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२
अक्टूबर-दिसम्बर २००४
बिहार गाँव की मृण्मुहरें
डॉ० अशोक प्रियदर्शी
बिहार गाँव फर्रुखाबाद जिले की सदर तहसीलान्तर्गत बौद्ध महातीर्थ संकिसा के पूर्व दिशा में लगभग १० कि०मी० दूरी पर २७.१८° उत्तरी अक्षांश तथा ७९.२०° पूर्वी देशान्तर पर उत्तरी रेलवे के पखना रेलवे स्टेशन से लगभग १.५ कि०मी० दूर दक्षिण-पूर्व में स्थित है।
भिक्षु युआन-चुआङ्ग ने संकिसा राजधानी से २० ली पूर्व में एक शानदार महाविहार के प्रांगण में जिन देवावरोहण कलाकृतियों का उल्लेख किया है, उनके भग्नावशेषों की पहचान सर कनिंघम ने वर्तमान बिहार गाँव/पखना-बिहार के ऐतिहासिक टीले के रूप में की है। प्राचीन काल में बिहार गाँव का महाविहार अवश्य ही संकिसा महातीर्थ का एक महत्त्वपूर्ण अंग रहा होगा। इसी महाविहार के कारण यह स्थल प्रारम्भ में विहार और फिर कालान्तर में पखना-बिहार के रूप में जाना गया। मेरे विचार में इस नगर को पखना-बिहार के बजाय संकिसा-बिहार कहना अधिक तर्क संगत है। इस सन्दर्भ में इसी प्रकार का विचार कनिंघम महोदय का भी है। कनिंघम ने प्राचीन महाविहार एवं स्तूप के भग्नावशेषों से उच्च नक्काशी युक्त अथवा सांचे में ढली हुई ईटों, सभी प्रकार के पत्थर के टुकड़ों, वास्तुकला के प्रस्तर-खण्डों, मूर्तियों के टुकड़ों के अलावा रोचकपूर्ण पकी हुई मृण्मुहरें भी प्राप्त की। यहीं से प्राप्त मृण्मुहरों में से कुछ पर बुद्धाकृति तो अनेक पर स्तूप के साथ-साथ प्रायः श्रमण अश्वजित द्वारा सारिपत्र को धम्म के सार रूप में कही गयी प्रसिद्ध बौद्ध गाथा - "ये धम्मा हेतुप्पभवा, हेतु तेसं तथागतो आह। तेसं चयो निरोधो एवं वादी महासमनो।' (अर्थात् जितने भी धर्म हैं, वे सब कारण (हेतु) से उत्पन्न होते हैं, उनका हेतु (कारण) तथागत बतलाते हैं और उनके निरोध (विनाश) का मार्ग बतलाते हैं। महाश्रमण (बुद्ध) इसी सिद्धान्त को मानते हैं।) पांच, छ: अथवा सात पंक्तियों में उत्कीर्ण है। ये सभी मुहरें कुषाण काल से लेकर १०वीं एवं ११वीं सदी की हैं। कालांतर में डॉ० आर०के० पॉल ने बिहार गाँव के अपने सर्वेक्षण के दौरान यहाँ से ११ पकी हुई मृण्मुहरें प्राप्त की जिनमें से १० पर तो ५वीं सदी से ७वीं सदी की गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में उपर्युक्त प्रसिद्ध बौद्ध गाथा पूर्ण * 'चामेलिका', विवेक विहार, मैनपुरी - २०५ ००१
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