Book Title: Sramana 2004 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 19
________________ १४ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४ के संकलन की आवश्यकता का अनुभव ही नहीं किया। इसके साथ ही, जिन्होंने यह संकलन किया, उस पर प्रश्न चिन्ह भी लगा दिया। इस परिस्थिति में आचार्य धरसेन को अवशिष्ट अंश के लोप की शंका हुई, तो उन्होंने दो शिष्यों को, जो उन्हें स्मरण था, आगमज्ञान दिया जिससे दिगंबरों के प्रथम आगम-कल्प ग्रंथ रचे गये। इसके उत्तरवर्ती काल में अनेक ग्रंथ रचे गये। ये सभी आचार्य आरातीय (दूरवर्ती), कम से कम महावीर निर्वाण से ६८३ (वर्ष पश्चात्) कहे जाते हैं। उनके रचे ग्रंथों को ही हम उपचार से 'जिनवाणी' कहते हैं। वस्तुत: वे 'आचार्यवाणी' हैं। उन्हें जिनवाणी मानने के आधारों पर मूल्यांकित कर सकते हैं। ___ इसके आधार पर आज हमें विभिन्न शास्त्रों में अनेक तथ्य प्राप्त होते हैं जो उपरोक्त आधारों पर खरे नहीं प्रतीत होते हैं। साथ ही, ऐसा भी लगता है कि ये शास्त्र अपने युग के ज्ञान-विज्ञान को प्रस्तुत करते हैं। इसीलिये उनमें आधुनिक भौतिक जगत् में आविष्कृत अनेक विवरणों का संकेत भी नहीं है। इस संबंध में अनेक सूचनायें तुलसी प्रज्ञा २३४, पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रंथ एवं साइंटिफिक कन्टेंट्स इन प्राकृत केनन्स में दी गई हैं। वहां विसंवादिता के ८१ विवरण दिये गये हैं। इनमें (१) महावीरोत्तर ६८३ वर्ष की आचार्य परम्परा की उपलब्ध विविधता (२) शास्त्रों में पूर्वापर विरोध, (३) भौतिक जगत् के विवरणों में विसंगतियां तथा (४) आचार सम्बन्धी विसंगतियां समाहित हैं। इसके साथ ही, जिनवाणी को 'सर्वज्ञता' के सिद्धांत के आधार पर हमने 'स्थिर तथ्यी' माना है, उसके परे कोई ज्ञान ही नहीं है। निरंतर परिवर्तनशील जगत् एवं जीव में स्थिर-तथ्यता की बात भी आज के युग में गले नहीं उतरती। ज्ञान तो प्रवाहशील होता है। उनमें ऐतिहासिक तथ्यता की स्वीकृति अधिक रुचिकर होगी। इसीलिये उसके विवरणों को बिना परीक्षा किये, वैज्ञानिकता भी प्राप्त नहीं हो पाती। उत्तराध्ययन भी कहता है कि प्रज्ञा से धार्मिक सिद्धांतों की परीक्षा करनी चाहिये। हमारे चौथी-पांचवी सदी के और उसके उत्तरवर्ती सिद्धसेन, समंतभद्र, अकलंक, विद्यानंद आदि आचार्यों ने परीक्षा प्रधानी बनकर इसे वैज्ञानिकता प्रदान करने का प्रयास किया है। सिद्धसेन ने अपनी द्वात्रिंशिका में कहा है कि मैं पूर्वजों द्वारा स्थापित सिद्धांतों व्यस्थाओं को तथैवेति मानने का पक्षधर नहीं हूँ। मैं उनकी परीक्षा करूंगा, चाहे कोई माने या न माने। यही कारण है कि विभिन्न शास्त्रों के विवरणों में समय-समय पर परिवर्तन, संवर्धन, संशोधन, नामांतरण, क्रम-परिवर्तन तथा विलोपन आदि की प्रक्रियायें अपनाई गई है। ज्ञान के विकास का राजमार्ग इन्हीं प्रक्रियाओं से अधिक व्यापक और उपयोगी होता है। फलत: हमें विद्यमान आगम-कल्प ग्रंथों के विवरणों के संदर्भ में पूर्वापर अविगेधिता की दृष्टि से विचार करना चाहिये। यह वैज्ञानिक युग है और हम अपने धर्म की वैज्ञानिकता तथा वैज्ञानिक प्रवृत्ति को प्रसारित भी करते हैं। वर्तमान में सभी साधु एवं गुरुजन विज्ञान और धर्म समन्वय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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